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गाथा ७६ पर प्रवचन
रुचि न होगी, उसे तो प्रात्मा को बान मुहायेगी ही नहीं, अपितु बुरी लगेगी । पर हम क्या कर सकते हैं ? हम तो नहीं चाहते हैं कि हमारे मंह से कोई ऐसी बात निकले, जो किसी को बुरी लगे; पर हम आत्मा की बात छोड़ भी तो नहीं सकते ।
भाई ! जब मैंने एक स्थान पर अपने प्रवचन में उक्त छन्द बोलते हुए कहा कि -
____ "बस एक ज्ञायकभाव हूँ, मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।"
तो एक भाई कह उठे कि हमने तो प्रवचन के लिए पंडितजी बुलाये थे, यह भगवान कहाँ से आ गये ? आगे कहने लगे कि हमने तो आपको भगवान की वाणी का मर्म समझने के लिए बुलाया था और आप नो स्वयं को भगवान बताने लगे।
मैंने कहा- भाई ! हम मात्र अपने को ही नहीं, ग्राप सवको भी भगवान बता रहे हैं । हम यहाँ अपने को ही नहीं, आप सवको भगवान कहने पाये हैं। क्यों न कहें ?क्योंकि सभी प्रात्मा स्वभाव में तो भगवान हैं ही, यदि हम स्वयं को भगवानस्वरूप स्वीकार कर लें, जान लें, मान लें और स्वयं में ही समा जावे तो पर्याय में भी भगवान बन मकने हैं।
विश्व के समस्त दर्शनों में जैनदर्शन ही तो एक ऐसा दर्णन है, जो कहता है कि सभी प्रात्मा स्वयं भगवान हैं। भगवान की भी गुलामी मे मुक्त करनेवाला अनन्त स्वतंत्रता का उद्घोपक यह जैनदर्णन एक अद्भुत दर्शन है। भाई ! आपका भी दोप नहीं है, क्योंकि आज इस दुनिया में इतने नकली भगवान पैदा हो गए हैं कि जब कोई जैनदर्शन के इस अद्भुत सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है कि - "मैं स्वयं भगवान हूँ" तो दुनिया चौंक पड़ती है; पर भाईसाहब ! यह एक तथ्य है. परमसत्य है कि प्रत्येक प्रात्मा स्वयं भगवानस्वरूप ही है।
भगवान बनने का मार्ग बतानेवाला यह दर्शन क्या लोगों को उनकी भगवत्ता मे परिचित नहीं करायेगा, क्या स्वभाव से भगवान होने पर भी उन्हें पर्याय में भी भगवान वनने की प्रेरणा नहीं देगा?
क्यों नहीं देगा, अवश्य देगा; क्योंकि संपूर्ण जिनवाणी एक मात्र इसके लिए ही तो ममपित है ।
इस संदर्भ में महाकवि तुलसीदासजी का एक पद मुझे बहुत अच्छा लगता है, जिममें वे लिखते हैं :