Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ गाथा ७६ पर प्रवचन - - देह-देवल में विराजमान भगवान श्रात्मा ही साक्षात् परमात्मा है । - द्वादशांग वाणी का यही सार है । यह बात इस ज्ञानसमुच्चयसार अनेकों बार कही गई है। घुमा-फिराकर तारणस्वामी बार-बार इसी बात पर आ जाते हैं, क्योंकि उनके चित्त में वीतरागी वारणी की यह बात गहराई से घर कर गई थी । ४४वीं गाथा में भी यह बात इसी रूप में कही गई है, जिस पर कि अभी दो दिन पहले ही अपन विस्तार से चर्चा कर चुके हैं । I ૪૪ समस्त द्वादशांग का सार वास्तव में तो एक आत्मा ही है । एक श्रात्मा को समझाने के लिए ही तो समस्त शास्त्रों की रचना हुई है, क्योंकि एक इस भगवान आत्मा के ज्ञान बिना ही यह आत्मा अनादिकाल से संसार में भटक रहा है, अनन्त दुःख उठा रहा है । जो इस "आत्मा" शब्द में केवल ढाई अक्षर हैं । इन ढाई अक्षरों को सुन लेता है, समझ लेता है, पढ़ लेता है, अपना लेता है, पा लेता है; उसने सुनने योग्य सब सुन लिया, समझने योग्य सब समझ लिया, पढ़ने योग्य सब पढ़ लिया, अपनाने योग्य सब अपना लिया और पाने योग्य सब पा लिया समभो । इन ढाई अक्षर के ग्रात्मा को जान लेना ही ज्ञान है, पांडित्य है, शेष सब प्रपंच है, उसमें कुछ सार नहीं है । भाई ! निज भगवान आत्मा को जाननेवाले ही सच्चे ज्ञानी हैं, सच्चे पण्डित हैं । कबीर का एक दोहा प्रसिद्ध है : "पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुश्रा, पंडित भयां न कोय । ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय ॥" इसमें मात्र इतना सुधार कर दें कि "प्रेम" के स्थान पर "आत्मा" शब्द रख दें तो हमें यह पूर्णतः स्वीकार है । ऐसा कर देने पर उक्त छन्द फिर इसप्रकार होगा : "पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुद्रा, पण्डित भया न कोय । ढाई श्राखर श्रात्म का, पढ़े सो पण्डित होय ।।" भाई ! प्रेम शब्द में ढाई अक्षर हैं और आत्मा शब्द में भी ढाई अक्षर ही हैं । जो आत्मा के इन ढाई अक्षरों को पढ़ें अर्थात् इन ढाई अक्षरों का जो प्रतिपाद्य है, उसे समझें, वही वास्तव में सच्चा पंडित है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104