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गागर में सागर
देहदेवल में विराजमान देह से भिन्न ग्रमल, अखण्ड, ग्रानन्द का रसकंद, ज्ञान का घनपिण्ड, ध्येय, जय, श्रद्धेय चैतन्यस्वरूप भगवान 'आत्मा मैं स्वयं हूँ । इस बात पर तारणस्वामी ने बहुत बल दिया है । यही कारण है कि गाथा में तीन-तीन बार 'ममात्मा' शब्द का प्रयोग हुआ है।
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उक्त विषय से अपरिचित जगतजन ऐसा मानते हैं कि परमात्मा शुद्ध है और हम शुद्ध हैं, परमात्मा महान है और हम तुच्छ हैं; पर वे यह नहीं जानते कि ऐसा मानने पर एक बात स्पष्टरूप से माननी होगी कि जो शुद्ध है, वह पर है और जो निज है,
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वह अशुद्ध है ध्यान रहे पर का और अशुद्ध का ध्यान करने से शुद्धता की उत्पत्ति होती है और निज का तथा शुद्ध का ध्यान करने से शुद्धता की उत्पत्ति होती है । इसप्रकार शुद्धता की उत्पत्ति के लिए दो ग्रावश्यक शर्तें हो गईं। शुद्धता की उत्पत्ति के लिए एक नो निज का ध्यान करना आवश्यक है और दूसरे शुद्ध का । ग्रतः यदि निज और शुद्ध एक ही नहीं हुए तो फिर शुद्धता की उत्पत्ति संभव नहीं रहेंगी ।
यदि अरहंत - सिद्धरूप परमात्मा को ही शुद्ध मानेंगे और अपने आत्मा को स्वभाव से त्रिकाल शुद्ध होने पर भी शुद्ध नहीं मानेंगे तो शुद्धता और निजता एक साथ घटित नहीं होगी, क्योंकि ग्ररहंत सिद्धरूप परमात्मा तो निजस्वरूप हो नहीं सकते ।
ग्रतः दोनों शर्तें पूरी करने के लिए निज को ही शुद्ध मानना होगा, तभी ग्रात्मानुभूति होगी, सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होगी ।
अपने को शुद्ध मानना गलत भी नहीं है, क्योंकि अपना ग्रात्मा भी स्वभाव से तो शुद्ध है ही ।
हमारी सबसे बड़ी भूल यही है कि हमने निज भगवान ग्रात्मा को अशुद्ध मान रखा है । अरे, हमारा ग्रात्मा वर्तमान पर्याय में भले ही विकारी हो; तथापि उसका स्वभाव त्रिकाल शुद्ध है, ग्रमन है । इस त्रिकाली निज शुद्धात्मा के ध्यान में ही पर्याय में शुद्धता प्रगट होती है, यही शुद्धात्मा हमारे ध्यान का ध्येय व श्रद्धान का श्रद्धेय है ।
इस गाथा का मूल प्रयोजन यही बात स्पष्ट करना है ।
निजत्व विना सर्वस्व समर्पण नहीं होता । परस्परमात्मा चाहे कितना ही महान क्यों न हो, उसमें सर्वस्व समर्पण संभव नहीं है, उचित