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गाथा ४४ पर प्रवचन
वास्ता नहीं है, उससे जो भी व्यक्ति लेन-देन करेगा, उसका मेरा कोई उत्तरदायित्व नहीं है। इतना सब-कुछ कर देने पर भी उसका बाप तो वही रहेगा, कोई दूसरा थोड़े ही हो जावेगा । इस घोषणा से वह उसके कर्जे के उत्तरदायित्व से भले ही बच जाय; पर जो संबंध है, वह तो है हो । भाई या बेटे से राग टूट जाने से भाई का भाईपना और बेटे का बेटापना थोड़े ही मिट जायगा। इसीप्रकार अपनत्व टूट जाने से अपनापना समाप्त नहीं हो जाता । आत्मा से यदि हमने अपनत्व नहीं किया तो वह अपना नहीं रहा हो- यह तो संभव नहीं है । हाँ, यह बात अवश्य है कि आत्मा में अपनत्व होने का जो लाभ होना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया । हानि मात्र इतनी ही हुई है।
__ गजब की बात तो यह है कि सब-कुछ विगड़ कर भी अभी तक कुछ भी नहीं बिगड़ा है। अनादि काल से आजतक सब बिगड़ा ही बिगड़ा तो है; पर जो बिगड़ सकता था, बिगड़ना था, वह तो बिगड़ चुका । बिगड़ चुका अर्थात् बिगड़ कर चुक गया- समाप्त हो गया । बिगाड़ चुक गया, समाप्त हो गया और जिसमें कुछ बिगड़ता ही नहींऐसा भगवान आत्मा मैं आज भी विद्यमान हूँ। लो विगड़ गया, वह मैं नहीं हूँ। मैं तो वह हूँ, जिसमें बिगाड़-सुधार का प्रवेश ही संभव नहीं है। बिगाड़-सुधार पर्याय में होता है और मैं तो बिगाड़-सुधाररूप पर्याय से पार अनादि-अनन्त अखण्ड चैतन्य तत्त्व हूँ। तारणस्वामी यहाँ यह बताना चाहते हैं। ___अनादि काल से आत्मा को जाने बिना हमने अनन्त दुःख भोगे हैं, नरक गति में सर्दी-गर्मी के दुःख भोगे हैं; पर वे तो चले गये
और मैं तो अभी भी विद्यमान हैं। जो गया, वह मैं नहीं था और जो पानेवाला है, वह भी मैं नहीं हूँ; मैं तो वह हूँ, जो आता-जाता नहीं है । आने-जानेवाले तो मेहमान होते हैं, घरवाले नहीं। मैं मेहमान नहीं, घरवाला हूँ। मोह-राग-द्वेष के परिणाम आने-जानेवाले हैं, मेहमान हैं, वे आये और चले गये । जो गड़बड़ी थी, वह चली गई; जो अच्छाई है, वह टिकाऊ है। मैं तो टिकाऊ तत्त्व है। वस्तु का स्वरूप हमारे कितने अनुकूल है कि जो खरावी थी, वह चली गई; जो अच्छाई है, वह मौजूद है।
बरफ की शिलापर कोई लाल रंग डाल दे तो उस शिला से झरनेवाला जल लाल ही निकलेगा, लाल ही हो जायगा, पर ध्यान रहे शिला तब भी सफेद ही रहेगी, लाल नहीं हो जावेगी। ऊपर से जो