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गाथा 6४ पर प्रवचन
मात्र हमारी मान्यता ही मलिन होती है। अतः चिन्ता की कोई बात नहीं है; क्योंकि मूल वस्तु तो ज्यों की त्यों है, उसमें कुछ गड़बड़ी हुई ही नहीं है। ___ बताओ, यदि किसी को स्वप्न में टी०बी० हो जावे तो किस डाक्टर को दिखाना चाहिए ?
इसमें डाक्टर की आवश्यकता ही क्या है ? टी०बी० किसी को हई ही कहाँ है ? मात्र टी०बी० होने का स्वप्न पाया है। स्वप्न को समाप्त करने का उपाय जागना है, डाक्टर को बुलाना नहीं।
...इसमें डाक्टर क्या करेगा, क्योंकि टी० बी० हई ही नहीं, मात्र टी०बी० होने का भ्रम खड़ा हुआ है। भ्रम से उत्पन्न दुःख को मेटने का उपाय भ्रम दूर करना है।
इसीप्रकार भगवान आत्मा कभी मलिन हुआ ही नहीं है, मलिन होने का भ्रम ही हुआ है, हमने मात्र उसे मलिन माना है। मलिनता की सीमा मात्र भ्रम तक ही है, मान्यता तक ही है । हमें प्रात्मा को नहीं सुधारना है; क्योंकि वह सुधरा हुआ ही है, उसमें कोई खराबी हुई ही नहीं है । मात्र मान्यता सुधारने को ही आत्मा का हित कहते हैं । ग्रात्मा तो हित स्वरूप ही है, उसका क्या हित करना?
प्रात्मा कभी अशुद्ध हुआ ही नहीं, मात्र उसे अशुद्ध माना गया है। अतः आत्मा में कुछ करने को रह ही नहीं जाता है । "मैं मलिन हूँ, अशुद्ध हूं"- मात्र यह मान्यता ही समाप्त करनी है, इसके समाप्त होते ही इस जीव के सारे दु:ख समाप्त समझो।
इसप्रकार तारगास्वामी ने इस ज्ञानसमुच्चयसार की चवालीसवीं गाथा में देहदेवल में विराजमान, पर देह से भिन्न, राग से भिन्न, मलिनता में भिन्न निज शुद्ध भगवान प्रात्मा की ही बात की है।
यह अमल निज परमात्मा ही ग्रानंद का रसकंद है, ज्ञान का घनपिण्ड है; इसके प्राश्रय से ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। इसमें एकत्व स्थापित होने का नाम, ममत्व स्थापित होने का नाम ही सम्यग्दर्शन है, इसे ही जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है और इसी में जम जाने, रम जाने का नाम सम्यक्चाग्नि है ।
सभी ग्रात्मा इस पावन यात्मा को जानकर इसमें ही एकत्व स्थापित करें, इसमें ही जमकर, रमकर अनन्त सुखी हों- इस पावन भावना के साथ ग्राज विराम लेता हूँ।