Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ गाथा ८८ पर प्रवचन इस छोटे से कथन में तारणस्वामी ने कितनी बड़ी बात कह दी है, पर कोई समझे तब न ? ग्रात्मा तो सदा ही अमल है, वह तो कभी मलिन होता ही नहीं है । मलिनता मात्र पर्याय में होती है, पर भगवान ग्रात्मा तो पर्याय से भिन्न त्रिकाली ध्रुवतत्त्व है । भाई ! यह परमअध्यात्म की बात है । या कहते हैं कि मेरा यह शुद्ध ग्रात्मा हो ध्रुव है । रागादि विकारी परिणाम ग्रशुद्ध हैं, ग्रध्रुव हैं और भगवान आत्मा शुद्ध है, ध्रुव है । मेरा यह शुद्ध ग्रात्मा, ध्रुव ग्रात्मा ही परमात्मा है । "ममात्मा परमात्मं ध्र ुवं" कहकर तारणस्वामी प्रत्येक आत्मा को ध्रुव परमात्मा घोषित करते हैं । परमात्मप्रकाश में भी कहा है कि "अप्पा सो परमप्पा - आत्मा ही परमात्मा है ।" अपना परमात्मा तो अपना ग्रात्मा ही है, क्योंकि अपनी परमात्मदशा तो अपने त्रिकाली ध्रुव प्रात्मा के आश्रय से ही उत्पन्न होनेवाली है। 1 मेरा यह त्रिकाली ध्रुव परमात्मा देहदेवल में विराजमान होने पर भी प्रदेही है, देह से भिन्न है । तारणस्वामी इसी गाथा में कहते हैं कि "देहस्थोऽपि प्रदेही च" देह में स्थित होने पर भी ग्रात्मा प्रदेही है । देहदेवल में विराजमान देह से भिन्न भगवान ग्रात्मा मैं ही हूँ, कोई अन्य नहीं । यहाँ इस बात पर विशेष वजन है । देह से भिन्न, राग से भिन्न, गुरणभेद से भी भिन्न निज भगवान ग्रात्मा की चर्चा, मैंने ग्रभी-अभी लिखी संवरभावना में की है, जो इसप्रकार है : देहदेवल में रहे पर देह से जो भिन्न है । है राग जिसमें किन्तु जो उस राग से भी श्रन्य है ॥ गुरमेद से भी भिन्न है पर्याय से भी पार है । जो साधकों की साधना का एक ही आधार है ||१|| कौन है वह आत्मा ? मैं हूँ वही शुद्धात्मा चैतन्य का मार्तण्ड श्रानन्द का रसकन्द हूँ मैं ज्ञान का घनपिण्ड मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान 1 || 1 ॥२॥

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