Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ गागर में सागर रूढ़िवादी परम्परा और पाखण्डवाद पर जीवन भर चोट करते रहे । देखिये उन्हीं के शब्दों में : __"जाइकुलं नहु पिच्छदि शुद्ध सम्मत्त दर्शनं पिच्छई । जाति और कुल से नहीं, बल्कि शुद्ध सम्यग्दर्शन से ही पवित्रता और बड़प्पन पाता है।" आपके ग्रन्थों में अलंकारों की दृष्टि से रूपकों की बहुलता है : "स्नानं च शुद्ध जलं" - यहाँ शुद्ध प्रात्मा को ही शुद्ध जल मानकर यह कहा है कि जो शुद्ध प्रात्मा में लय हो जाता है, वही सच्चे जल में स्नान करता है। तथा : "ध्यानस्य जलं शुद्धं ज्ञानं स्नानं पण्डिता"- अर्थात् पण्डित जन आत्मज्ञानरूप शुद्ध जल से ध्यान का स्नान करते हैं। तथा : "ज्ञानं मयं शुद्धं, स्नानं ज्ञानं पण्डिता" - अर्थात् ज्ञानमयी शुद्ध जल में ही पण्डित जन स्नान करते हैं । स्व० डॉ० हीरालाल जैन ने सन्त तारणस्वामी की रचना, शैली एवं भाषा और विषयवस्तु पर बड़ी सटीक टिप्पणी की है। वे लिखते हैं : इन ग्रन्थों की भावभंगी बहुत कुछ अटपटी है । जैनधर्म के मूल सिद्धान्त और अध्यात्मवाद के प्रधान तत्त्व तो इसमें स्पष्ट झलकते हैं। परन्तु ग्रन्थकर्ता की रचनाशैली किसी एक सांचे में ढली और एक धारा में सीमित नहीं है । .............."विचारों का उद्रेक जिसप्रकार जिस ओर चला गया, तब वैसा प्रथित करके रख दिया तथा इस कार्य में उन्होंने जिस भाषा का अवलम्बन लिया है, वह तो बिल्कुल निजी है। vir........न वह संस्कृत है, न कोई प्राकृतिक अपभ्रश है और न कोई देशी प्रचलित भाषा है। मेरी समझ में तो उसे "तारनतरन भाषा" १ उपदेश शुद्धसार, गाथा १५३ २ पण्डित पूजा, गाथा ८ का अंश ३ वही, गाथा का अंश ४ वही, गाथा १० का अंश

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