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“पुनः प्रकाशन की बेला में "
अवसर्पिणी काल के प्रभाव से दिनोंदिन श्रमणसंस्था आचारपालन में शिथिल हो रही है । समय-समय पर श्रमण संस्था में आगमोक्त क्रिया पालन के इच्छुक महापुरुष भी उत्पन्न हुए हैं जिन्होंने स्वशक्ति अनुसार ग्रन्थों की रचना कर, देशकालानुसार पट्टक बनाकर, क्रियोद्धार कर शिथिलाचार की विषाक्त आचरणा को दूर करने का सुप्रयत्न किया है।
आत्महित, आगमोक्त आचरणा का आदरपूर्वक आचरण करने से ही होता है, यह दो और दो चार जैसा स्पष्ट है। जिनागम स्पष्ट रूप से कहता है कि शक्ति को छुपाये बिना आगमोक्त आचरणा करने वाला भव्यात्मा मोक्षाधिकारी है एवं आचरणा का परिपूर्ण पालन करने की भावना होते हुए भी पूर्वकृत चारित्रावरणीय कर्म के प्रबल अशुभोदय के कारण आगमोक्त आचरणा कर न सके फिर भी आगमोक्त आचरणा का पक्ष धर भव्यात्मा भी सजता से आत्महित कर सकता है। पर जो-जो आत्माएँ स्व प्रमाद दशा को छुपाकर स्वयं की स्वच्छन्दता का पोषण करने हेतु देश काल की आड लेकर आगमोक्त आचरणाओं की हंसी उड़ाते हो, इस युग में इन आचरणाओं के पालन की बात करना मूर्खता है, पालन करते हैं ऐसा कहनेवाले ढोंगी हैं, धूतारे हैं, ऐसे विधान अपने भोले भक्तों को भरमाने हेतु कह रहे हो । उन आत्माओं का तो स्पष्ट रूप से अहित ही हो रहा है ।
आचार का महत्व तो “आचार प्रभवो धर्म:” सूत्र से स्पष्ट हो रहा हैं । आचार से ही धर्म . का प्रादुर्भाव होता है ।
गच्छाचार पयन्ना में गच्छ के आचार का वर्ण वर्णित है । गच्छ के प्रत्येक अंग के आचारों का वर्णन विस्तृत रूप से समझाया है। सुबोध्य बनाने हेतु प्रसंगोपात कथाओं का वर्णन दिया गया है।
गच्छाचार पयन्ना की प्रथमावृत्ति प्रकाशित हेने के बाद प्रकाशक की ओर से उसके प्रचार हेतु " जैन " साप्ताहिक पत्र में विज्ञापन दिया गया था जिसको संक्षेप में यहां उद्धृत कर रहे हैं, जिससे गच्छाचार पयन्ना की आज कितनी आवश्यकता है इसका हमें ख्याल आ जावे I [जैन पर्युषणांक, श्रावण वदी ११, विक्रम संवत २००३]
आजे आपणा समाजमां शिथिलतावधती चाली छे तेवा प्रसंगे आ गच्छाचार पयन्ना नुं प्रकाशन अतीव उपयोगी थई पडयुं छे. पूर्वाचार्य प्रणीत आ गच्छाचार पयन्ना ने जनोपयोगी बनाववा स्व. श्री विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजे तेनो अनुवाद कर्यो हतो. तेने संस्कारी ने सरल गुजराती भाषामा समाजाइ शके तेवी रीते प्रसिद्ध करवामां आवेल छे.
श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिती- आहोर