Book Title: Fulo ka Guccha Author(s): Nathuram Premi Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya View full book textPage 7
________________ फूलोंका गुच्छा। और उज्ज्वल नेत्रोंकी तरल दृष्टि में भक्तिभाव भरकर वसन्तके रूपकी पूजा करनेके लिए। यद्यपि उस रूपहीना, संकुचिता और शब्द-शक्तिविरहितापर दृष्टि डालनेको वसन्तको अवकाश न था, तो भी वह उसकी दृष्टिमें इसलिए पड़ गई थी कि वह अन्य सब युवतियोंके साथ अपने जीवनके तारको न बजा सकती थी। अर्थात् उसकी यह विषमता ही वसन्तके दृष्टिनिक्षेपका कारण थी। अन्यथा वसन्त अपने रूपके प्यासे नेत्रोंको उसपर क्यों डालता ? उस समय उसके यौवनका तप्त रक्त रूपके नशेमें चूर हो रहा था। रूपहीनाको उस रूपकी हाटसे निकाल देनेका उपाय न था, इसलिए वसन्त केवल सभ्यताके नियमका पालन करनेके खयालसे अन्य राजकुमारियोंके लिए माला गूंथ कर उनसे बचे हुए जैसे तैसे गंधहीन फूलोंकी एक माला बना रखता था और उसे यमुनाको इस तरह अवहेलनाके साथ देता था जैसे राजाओंके द्वारपर भिखारीको मिक्षा दी जाती है । परन्तु यमुना उस मालाको देवताके प्रसादके समान बड़ी श्रद्धाके साथ अपने गलेमें पहन लेती थी। जिस दिन कुमारी इन्दिरा एक विशेष प्रकारकी ग्रीवाभंगी करके लीलायुक्त कटाक्षसे मुसकुरा जाती थी, कुमारी शुक्ला जाते जाते एक आध बार दयापूर्वक लौटकर देख लेती थी और कुमारी आनन्दिता प्राणोंको उन्मत्त कर देनेवाला मधुर परिहास कर जाती थी, उस दिन वसन्त यमुनाके लिए भी गंधहीन और काले रंगके अपराजिता नामक फूलोंको एक माला बना देता था । वसन्तका. यह अपूर्व प्रसाद पाकर यमुनाका मन आनन्द और कृतज्ञतासे इतना भर जाता था कि उसमें उसे अपनी लज्जाको भी रखनेका स्थान न रहता था। वसन्तका बगीचा घरके फूलोंसे और वनके फूलोंसे शोभित रहता था, चन्द्रमाकी चांदनी और रूपकी चांदनीसे प्लावित रहता था, पक्षियोंके कलकूजनसे और युवतियोंके कलहास्यकौतुकसे ध्वनित रहता था, फब्बारोंकी अजस्त्र धाराओंसे और हृदयकी अजस्त्र प्रीतिसे सींचा जाता था और मणिदीपोंके प्रकाशसे तथा बड़ी बड़ी आंखोंकी चितवनसे उज्ज्वल रहता था । दिनके बाद दिन, रातके बाद रात, सवेरेके बाद संध्या और संध्याके बाद सवेरा इस प्रकार धीरे धीरे एक सुखके सोतेके समान समय वहा चला जाता था। उसमें वह युवतियोंका झुंड वसन्तको घेरे हुए आनन्दमन और प्रणयोन्मत्तPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 112