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(१६) सामायिक - जीवन - परण, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु, सुख-दुःख, भूख-प्यास आदि बाधाओं में राग-द्वेष रहित समभाव रखना,
(१७) चतुर्विंशति - स्तव - ऋषभादि, चौबीस तीर्थंकरों की मन-वचनकाय की शुद्धतापूर्वक स्तुति करना।
(१८) वन्दना- अरहंतदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और जिन शास्त्र को मन-वचन-काय की शुद्धि सहित बिना मस्तक नमा नमस्कार करना |
(१९) प्रतिक्रमण - द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव रूप किये गये दोष को शोधना और अपने आप प्रकट करना ।
(२०) प्रत्याख्यान - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव- इन छहों में शुभ मन, वचन, काय से आगामी काल के लिये अयोग्य का त्याग करना।
(२१) कायोत्सर्ग - निश्चित क्रियारूप एक नियत काल के लिये जिन गुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़कर स्थिति होना ।
(२२) केशलोंच- दो, तीन या चार महीने बाद प्रतिक्रमण व उपवास सहित दिन में अपने हाथ से मस्तक, दाढ़ी, मूंछ के बालों का उखाड़ना ।
(२३) अचेलक - वस्त्र, चर्म, टाट, तृण आदि से शरीर को नहीं ढ़कना और आभूषणों से भूषित न होना ।
(२४) अस्नान - स्नान उबटन अञ्जन- लेपन आदि का त्याग।
(२५) क्षितिशयन - जीव बाधा रहित गुप्त प्रदेश में इण्डे अथवा धनुष के समान एक करवट से सोना ।
(२६) अदन्तधावन - अंगुली, नख, दातून, तृण आदि से दन्त-- मल को शुद्ध नहीं करना ।
(२७) स्थिति भोजन- अपने हाथों को भोजनपात्र बनाकर भोत आदि के आश्रय रहित चार अंगुली के अन्तर से समपाद खड़े रहकर तीन भूमियों की शुद्धता से आहार ग्रहण करना।
(२८) एक भक्त - सूर्य के उदय और अस्त काल को तीन घड़ी समय छोड़कर एक बार भोजन करना।
इस प्रकार एक मुमुक्षु दिगम्बर मुनि के श्रेष्ठपद को तब ही प्राप्त कर सकता है जब वह उपर्युक्त अट्ठाइस मूल गुणों का पालन करने लगे। इनके अतिरिक्त जैन मुनि के लिए और भी उत्तर गुणों का पालन करना आवश्यक है, किन्तु ये अट्ठाइस मूल गुण हो ऐसे व्यवस्थित नियम हैं कि मुमुक्षु को निर्विकारी और योगी बना दें। यही कारण है कि आज तक दिगम्बर जैन मुनि अपने पुरातन वेष में देखने को नसीब (42) दिगम्बर और दिगम्बर मुनि