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उपर्युक्त विद्वानों में से अमरसिंह', वराहमिहिर' आदि ने अपनी रचनाओं मे . जैनों का उल्लेख किया है, उससे भी प्रकट है कि उस समय जैन धर्म काफी उन्नत रुप में था। वराहमिहिर ने जैनों के उपास्य देवता की मूर्ति नग्न बनती लिखी है, जिससे स्पष्ट है कि उस समय उज्जैनी में दिगम्बर धर्म महत्वपूर्ण था। जैन साहित्य से प्रकट है कि उज्जैनी के निकट भद्दलपुर (वीसनगर) में उस समय टिंगवर नियों का मंध मौजूद था, जिसके आचार्यों की कालानुसार नामवली निम्न प्रकार हैं१. श्री मुनि वज्रनन्दी
सन् ३०७ में आचार्य हुये श्री मुनि कुमार नन्दी
सन् ३२९ में आचार्य हुये श्री मुनि लोकचन्द्र प्रथम सन् ३६० में आचार्य हुये श्री पुनि प्रभाचन्द्र प्रथम सन् ३९६ में आचार्य हुये श्री मुनि नेमिचन्द्र प्रथम सन् ४२१ में आचार्य हुये 'श्री मुनि भानुनन्दि
सन् ४३० में आचार्य हुये श्री मुनि जयनन्दि
४५१ में आचार्य हुये श्री मुनि वसुनन्दि
४६८ में आचार्य हुये श्री मुनि वीरनन्दि
४७४ में आचार्य हुये श्री पुनि रत्ननन्दि
५०४ में आचार्य हुये श्री मुनि माणिक्यनन्दि ५२८ में आचार्य हुये श्री मुनि मेघचन्द्र
५४४ में आचार्य हुये १३. श्री मुनि शान्ति कीर्ति प्रथय - ५६० में आचार्य हुये १४. श्री मुनि मेरुकीर्ति प्रथम - ५८५ में आचार्य हये
इनके बाद जो दिगम्बर जैनाचार्य हुये, उन्होने भद्दलपुर (मालवा) से हटाकर जैन संघ का केन्द्र उज्जैन पे बना दिया। इससे भी स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के निकट जैन धर्म को आश्रय मिला था। उसी समय चीनी यात्री फाह्यान भारत में आया था। उसने पथुरा के उपरान्त पध्यप्रदेश में ९६ पाखण्डों का प्रचार लिखा है। वह कहता है कि “वे सब लोक और परलोक मानते हैं। उनके साधु-संघ हैं। वे भिक्षा करते हैं, केवल भिक्षापात्र नहीं रखते। सब नाना रुप से धर्मानुष्ठान करते हैं।" दिगम्बर मुनियों के पास भिक्षापात्र नहीं होता-खे पाणिपात्र भोजी और उनके संघ होते हैं तथा वे मुख्यतः अहिंसा धर्म का उपदेश देते हैं। फाह्यान भी कहता है कि "सारे
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१. अमरकोष देखो। २. 'नानान् जिनानां विदुः ।- वराहमिहिर संहिता ३. पट्टवाली जैहि.. भाग ६, अंक ७-८, पृ. २९-३० व [A,XX, 351-352 ४. IA,XX,352.
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दिगम्बरस्य और दिगम्बर मुनि