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दिगम्बराचार्यों का महत्वपूर्ण कार्य - सचमुच दिगम्बर मुनियों ने बड़े-बड़े राज्यो की स्थापना और उनके संचालन में गहरा भांग लिया था। पुलल (पास) के पुरातत्व में प्रकट है कि उनके एक दिगम्बराचार्य ने असभ्य कुटुम्बों को जैन धर्म में दीक्षित करके सभ्य शायक बना दिया था। वे जैन धर्म के महान रक्षक थे और उन्होंने धर्म लगन से प्रेरित होकर बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं। उन्होंने ही क्या बल्कि दिगम्बगचार्यों के अनेक राजवंशी शिष्यों ने धर्म संग्राम में अपना भूज विक्रम प्रकट किया था। जैन शिलालेख उनकी रण-गाथाओं से ओतप्रोत है। उदाहरणतः गंगसेनापति क्षत्रचूड़ामणि श्री चामुण्डराय को ही लीजिये, वह जैन धर्म के द्रढ़ श्रद्धानी ही नहीं बल्कि उसके तल्व के ज्ञाता थे। उन्होनें जैन धर्म पर कई श्रेष्ठ ग्रंथ लिखे हैं और वह श्रावक के धर्माचार का भी पालन करते थे, किन्तु उस पर भी उन्होंने एक नहीं अनेक सफल संग्रामों में अपनी तलवार का जौहर जाहिर किया था। सचमुच जैन धर्म मनुष्य को पूर्ण स्वाधीनता का सन्देश सुनाता है। जैनाचार्य निःशंक
और स्वाधीन होकर वही धर्मोपदेश जनता को देते हैं जो जनकल्याणकारी हो। इसलिये वह "वसुधैवकुटुम्बक कहे गये हैं। भीरुता और अन्याय तो जैन मुनियों के निकट फटक भी नहीं सकता है।
प्रो.सा. के उक्त संग्रह में विशेष उल्लेखनीय दिगम्बराचार्य श्री भावसेन त्रैवेध चक्रवर्ती जो वादियों के लिये पहाभयानक ( TError do displant) थे वह और बवराज के गुरु (Preceptor of Bava King) श्री भावन्दि पुनि हैं। अन्य श्रोत से प्रकट है कि -
बाद के शिलालेखों में दिगम्बर मुनि - सन् १४७८ ई. में जिजी प्रदेश में दिगम्बराचार्य श्री वीरसेन बहुत प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने लिंगायत-प्रचारकों के समक्ष बाद में विजय पाकर धोद्योत किया था और लोगों को पुनः जैन धर्म में दीक्षित किया था। कारकल में गजा कोरपाड्य ने दिगम्बराचार्यों को आश्रय दिया था और उनके द्वारा सन् १४३२ में श्री गोम्मट मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी जिस उन्होंने स्थापित कराया था। एक ऐसी ही दिगम्बर मूर्ति को स्थापना वेणूर में सन् १६०४ में श्री तिम्पराज द्वारा की गई थी। उस समय भी दिगम्बराचार्यों ने धोयोत
१.OIL, P. 2.6. २. वीर, वर्ष ७, पृ. २-११ । ३.SSLI. Ft. VI. pp. 61-62.
४. वीर वर्ष ५ पृ. २४९ । दिशाबरत्व और दिगम्बर मुनि
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