Book Title: Digambaratva Aur Digambar Muni
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Sarvoday Tirth

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Page 171
________________ (The Jaina) faith helped towards the formation of good and grcal character helpful to the progress of Culture and Humanity. The leading exponents of that laith continued to live such lives of hardy discipline and spiritual culturc etc." भावार्थ - "जैन धर्म संस्कृति और मानव समाज की उन्नति के लिये उत्कृष्ट और महान चरित्र को निर्माण कराने में सहायक रहा है। इस धर्म के आचार्य सदा की भांति तपश्चरण और आत्मविकास का उन्नत जीवन व्यतीत करते रहे।* "ईसाई मिशनरी ए. डुबोई स्प. ने दिगम्बन मुनियों के सम्बन्ध में कहा था कि - "सबसे उच्च पद जो कि मनुष्य धारण कर सकता है वह दिगम्बर मुनि का पद है। इस अवस्था में मनुष्य साधारण मनुष्य न रहकर अपने ध्यान के बल से परमात्मा का मानो अंश हो जाता है। जब मुनष्य निर्वाणी (दिगम्बर) साधु हो जाता है तब उसको इस संसार से कुछ प्रयोजन नहीं रहता। और यह पुण्य-पाप, नेकी-बदी को एक ही दृष्टि से देखता है। उसको संसार की इच्छायें तथा तृष्णायें नहीं उत्पन्न होती हैं। न वह किसी से राग और न द्वेष करता है। वह बिना दुःख पालुम किये उपसगों को सहन करता है। अपने आत्मिक भावों में जो भौजा हो उसको क्यों इस संसार की और उसकी निस्सार क्रियाओं को चिन्ता होगी।" एक अन्य महिला मिशनरी श्री स्टीवेन्सन ने अपने ग्रंथ "हार्ट आफ जैनिज्म" में लिखा कि - "Bcing rid of clothes one is also rid a lot of other worries no waler I needed in which to wash them. Our knowledge of good and evil, our knowledge of nakcuncss keeps us away form salvat on. To obtain it wc must forget nakedness. The Jain Niragranthas have forget all knowlcdgc ol good and evil. Why should they require clothes lo hide their nakedness?" (Heart of Jainism, p. 35) भावार्थ - "वस्त्रों की झंझट से छूटना, हजारों अन्य झंझटों से छूटना है। कपड़े धोने के लिये एक दिगम्बर वेषी को पानी की जरूरत नहीं पड़ती। वस्तुतः पाप-पुण्य का भान नग्नता का ध्यान ही मनुष्य को मुक्त नहीं होने देता। मुक्ति पाने के लिये मनुष्य को नग्नता का ध्यान भुला देना चाहिये। जैन निग्रंथों ने पाप-पुण्य के भान को भुला दिया है। भला उन्हें अपनी नग्नता छिपाने के लिये वस्त्रों की क्या जरूरत? १. जैम., पृ. १०५। (168) दिगम्बास्थ और दिगम्स मुनि

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