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ई. ९७३ - १०५८ ) की रचनाओं में जैनत्व की काफी झलक मिलती है। अबु-लू - अला शाकभोजी तो थे ही, परन्तु वह महात्मा गांधी की तरह यह भी मानते थे कि एक अहिंसक को दूध नहीं पीना चाहिये । मधु का भी उन्होंने जैनों की तरह निषेध किया था । अहिंसा धर्म को पालने के लिये अबु-ल् अला ने चपड़े के जूतों का पहनना भी बुरा समझा था और नग्न रहना वह बहुत अच्छा समझते थे। भारतीय साधुओं को अन्त समय अग्निचिता पर बैठकर शरीर को भस्म करते देखकर वह बड़े आश्चर्य में पड़ गये थे। इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि अबु-लू - अला पर दिगम्बर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था और उन्होंने दिगम्बर मुनियों को सल्लेखना व्रत का पालन करते हुये देखा था। वह अवश्य ही दिगम्बर मुनियों के संसर्ग में आये प्रतीत होते हैं। उनका अधिक समय बगदाद में व्यतीत हुआ
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था।
लंका (Ceylon) में जैन धर्म को गति प्राचीन काल से है। ईस्वी पूर्व चौथी शताब्दि में सिंहलनरेश पाण्डुकाभय ने वहाँ के राजनगर अनुरुद्धपुर में एक जैन मन्दिर और जैन मठ बनवाया था। निग्रंथ साधु वहाँ पर निर्बाध धर्म प्रचार करते थे। इक्कीस राजाओं के राज्य तक वह जैन विहार और मठ वहाँ मौजूद रहे थे, किन्तु ई. पू. ३८ में राजा वट्टगापिनी ने उनको नष्ट कराकर उनके स्थान पर बौद्ध बिहार बनवाया था। उस पर भी, दिगम्बर मुनियों ने जैन धर्म के प्राचीन केन्द्र लंका या सिंहलद्वीप को बिल्कुल ही नहीं छोड़ दिया था। मध्यकाल में मुनि यशः कीर्ति इतने प्रभावशाली हुये थे कि तत्कालीन सिंहल नरेश ने उनके पाद-यों की अर्चना की थी।
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सारांशतः यह प्रकट है कि दिगम्बर मुनियों का विहार विदेशो में भी हुआ था । भारतेतर जनता का भी उन्होंने कल्याण किया था।
. जैव. पृ. ४६६ /
२. महावंश, AISJP. ३७
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दिगम्बात्य और दिगम्बर मुनि
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