Book Title: Digambaratva Aur Digambar Muni
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Sarvoday Tirth

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Page 117
________________ 1 परिताप हुआ। उसने उनके स्मारक में १०८ दिगम्बर मन्दिर बनवाये। संघ में १०८ ही दिगम्बर मुनि थे।' इस घटना से महाराष्ट्र में एक समय दिगम्बर मुनियों की बाहुल्यता का पता चलता है। सचमुच महाराष्ट्र के रट्ट, चालुक्य शिलाहार आदि वंश के राजा दिगम्बर जैन धर्म के पोषक थे और यही कारण है कि वहाँ दिगम्बर मुनियों का बड़ी संख्या में विहार हुआ था। अठारहवीं शताब्दि में हुये दो दिगम्बर मुनियों का पता चलता है। एक मराठी कवि जिनदास के गुरु विद्वान दिगम्बराचार्य श्री उज्जतकीर्ति थे। दूसरे महतिसागर जी थे। उन्होंने स्वतः क्षुल्लकवत् दीक्षा ली थी। तदोपरान्त देवेन्द्रकीर्ति भट्टारक से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की थी। बन्हाड देश में उन्होंने खूब धर्म प्रभावना की थी। गूजरों को उन्होंने जैनी बनाया था। दही गाँव उनका समाधि स्थान है, जहाँ सदा मेला लगता है। उनके रचे हुए ग्रंथ भी मिलते हैं। (मौइ. पृ. ६५ - ७२) शाके ११२७ में कोल्हापुर के अजरिका स्थान में त्रिभुवनतिलक चैत्यालय में श्री विशालकीर्ति आचार्य के शिष्य श्री सोमदेवाचार्य ने ग्रंथ रचना की थी। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य दिगम्बर जैनियों के प्रायः सब ही दिग्गज विद्वान् और आचार्य दक्षिण भारत में ही हुये हैं। उन सबका संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करना यहाँ संभव नहीं है, किन्तु उनमें से प्रख्यात दिगम्बराचार्यों का वर्णन यहाँ पर दे देना इष्ट है। अंग ज्ञान के ज्ञाता दिगम्बराचार्यों के उपरान्त जैन संघ में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम प्रसिद्ध है। दिगम्बर जैनों में उनकी मान्यता विशेष है। वह महातपस्वी और बड़े ज्ञानी थे। दक्षिण भारत के अधिवासी होने पर भी उन्होंने गिरिनार पर्वत पर जाकर श्वेताम्बरों से वाद किया था । तामिल साहित्य का नीतिग्रंथ कुर्रल उन्हीं की रचना थी। उन और उन्हीं के समान अन्य दिगम्बराचार्यो के विषय में प्रो. रामास्वामी ऐयंगर लिखते हैं "First comes Yatindra Kunda, a great Jain/ Guru who in order to show that both within & without he could not be assisted by Rajas, moved about leaving a space of four inches between himself and the earth under his feet. Uma Swami, the compiler of Tautvartha Sutra, Griddhrapinchha, and his disciple. Balakapinchha folow. Then comes Samantabhadra, fever fortunate', 'whose discourse lights up the place of the three worlds filled with the all meaning Syadvada. This Samantabhadra was the first of a series of celebrated Digambara writers who acquired considerable १. बंप्राजैस्मा. पृ.७६ । पृ. ७६५ । २. दिजैडा ., ३.SS1Jpp. 40-44 & 89. (114) दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि

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