________________
१६
धर्मामृत ( सागार) इस जैन धर्मकी दीक्षामें देशव्रत धारण करनेसे प्रथम तत्वार्थका निश्चय आवश्यक कहा है। च्योंकि तत्त्वार्थके निश्चयपूर्वक ही सम्यक्त्व होता है और सम्यक्त्वपूर्वक ही चारित्र धारणका विधान है। किन्तु आज उल्टो गंगा बह रही है। जिन्हें तत्त्वार्थका बोध भी नहीं, वे त्यागी और मुनि बनते हैं। और माना जाता है कि चारित्र धारण करनेसे सम्यक्त्व स्वतः प्राप्त हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि सात तत्त्वोंसे अपरिचित भी व्यक्ति चारित्र धारण करके केवल बाह्य आचरणको ही यथार्थ धर्म मानकर, आत्मज्ञानसे अछूता ही रहा जाता है। ऐसोंके लिए ही कहा गया है
"मुनिव्रतधार अनन्तवार ग्रंवेयक उपजायो।
पै निज आतमज्ञान विना सुख लेश न पायो ॥" आत्मज्ञानके बिना समस्त व्रताचरण व्यर्थ है। व्रताचरण वही यथार्थ होता है जो संसारका अन्त करता है। और संसारका अन्त वही कर सकता है जो सम्यक्त्व प्राप्त करके अनन्त संसारको सान्त कर लेता है। जिसका संसार अनन्त है वह मुनिपद धारण करके भी अनन्त संसारका अन्त नहीं कर सकता। अतः व्रतधारण से पूर्व गुरुमुखसे तत्त्वार्थका स्वरूप निश्चित करके उसकी यथार्थ श्रद्धा आवश्यक है। उसके बिना जैनत्वकी दीक्षा अधूरी है।
. इसके प्रकाशमें जब हम आज जैनकुलमें उत्पन्न होनेसे अपनेको जैन कहलाने वालोंको देखते हैं तो घोर कष्ट होता है। तत्त्वार्थका ज्ञान तो आजके अनेक त्यागियों और मुनियों तकको नहीं, फिर साधारण गृहस्थोंकी तो बात ही क्या है। अब तो जैन बालक नमस्कार मन्त्र तकसे अपरिचित पाये जाते हैं। उन्हें जैनधर्मकी दीक्षा देनेका कोई प्रयत्न नहीं किया जाता। आज जैनेतर मिथ्यादष्टियोंको जैनधर्मकी दीक्षा देनेसे प्रथम जैनमिथ्यादृष्टियोंको जैनधर्मकी दीक्षा देना आवश्यक है। उसके लिए उन्हें द्रव्यसंग्रह और रत्नकरण्ड श्रावकाचार ये दो ग्रन्थरत्न पढ़ाना ही चाहिए। इससे उन्हें तत्त्व और श्रावकाचार दोनोंका बोध हो सकेगा और तब वे जैन कहलाने के पात्र बन सकेंगे ।
शद्र का धर्माधिकार-आशाधर जी ने आचार आदि शुद्धिसे विशिष्ट शद्रको भी ब्राह्मण आदि की तरह यथायोग्य धर्मक्रिया करनेका अधिकारी बतलाया है और उसके समर्थनमें सोमदेवसूरिके उपासकाध्ययन तथा नीतिवाक्यामृतसे उद्धरण दिये हैं। उपासक.ध्ययन में कहा है कि दीक्षाके योग्य तो तीन वर्ण हैं किन्तु आहारदान चारों दे सकते हैं। नीतिवाक्यामृतमें कहा है-आचारकी निर्दोषता अर्थात मद्य मांसका सेवन न करना, उपकरण आदि की पवित्रता और शारीरिक बिशुद्धि शुद्र को भी देव, द्विज और तपस्वियोंके परिकर्मके योग्य बनाती है । सागार धर्मामृत २।२२ में भी यही बात कही है। तथा साथ में यह भी कहा है कि कालादिलब्धिके अर्थात धर्माराधनकी योग्यताके होनेपर जीव श्रावकधर्मका आराधक हो सकता है। अर्थात् जिन दीक्षाका शत्र नहीं होनेपर भी शूद्र श्रावकधर्मका पालन कर सकता है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न चाण्डाल को भी देवतुल्य कहा है। इसी तरह पद्मपुराणमें व्रती चाण्डालको देवतुल्य कहा है। अहिंसाणुव्रतका पालन करनेवालों में भी यमपाल चाण्डाल प्रसिद्ध हुआ है।
हिन्दू धर्मशास्त्रके अनुसार भी शूद्रके दो भेद होते है--भोज्यान्न, जिनके द्वारा बनाया गया भोजन ब्राह्मण कर सके और अभोज्यान्न तथा सत्शूद्र और असत्शूद्र । प्रथम प्रकार में वे शूद्र आते हैं जो सद्व्यवसाय करते हैं, द्विजातियोंकी सेवा करते हैं और मद्य मांसको त्याग चुके हैं। शूद्र वैदिक क्रियाएँ नहीं कर सकते हैं। उन्हें वेदाध्ययन करना मना है। किन्तु महाभारत पुराण आदि सुन सकते हैं। उन्हें केवल गृहस्थाश्रमका ही अधिकार है।
दि. जैन साहित्यमें वर्णव्यवस्थाका वर्णन जिनसेनके महापुराणमें ही विस्तारसे मिलता है। किन्तु उसमें भी शूद्रके धर्माधिकारका स्पष्ट विवेचन नहीं है । श्रावकाचारोंमें भी आशाधरके श्रावकाचारमें ही स्पष्ट ,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org