________________
धर्मामृत ( सागार) "मद्य-मांस-परित्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् ।
हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् ॥"-महापु. ३८।१२२ । इसमें मधुत्याग नहीं है । तथा हिंसादिविरतिको गिननेसे आठ हो जाते हैं। किन्तु द्यूतत्याग नहीं है। अतः महापुराणके नामसे उद्धृत उक्त श्लोक विचारणीय है। महापुराण, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, सोमदेव उपासकाध्ययन, पद्मनन्दि पंचविंशतिका, सागारधर्मामृत आदिमें पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागवाले ही अणुव्रत आते हैं । रत्नकरण्डमें ही पाँच अणुव्रतवाले अष्टमूल गुण पाये जाते हैं। कहाँ पाँच अणुव्रत और कहाँ पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग, दोनोंमें मोहर और कौड़ी जैसा अन्तर है। पाँच अणुव्रत तो नैतिकताके भी प्रतीक हैं । किन्तु पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग तो मात्र स्थूल हिंसाके त्यागका प्रतीक है। देखा जाता है कि आजका व्रती श्रावक खानपानकी शुद्धिकी ओर तो विशेष ध्यान देता है किन्तु भावहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहकी ओरसे उदासीन जैसा रहता है। मानो ये पांचों व्रत उसके लिए अनावश्यक जैसे हैं । इससे व्रती श्रावकोंकी भी नैतिकतामें ह्रास देखा जाता है और उससे धर्माचरणकी गरिमा हीन होती जाती है । अतः पाँच अणुव्रतोंकी ओर ध्यान देना आवश्यक है।
मद्य, मांस, मधु-हिन्दू या वैदिक धर्ममें मद्य, मांस और मधुके सेवनका विधान है। यज्ञोंमें पशुवध होता था और हविशेषके रूपमें मांसका तथा मद्यका सेवन करना धर्म माना जाता था। अतिथि सत्कार तो मधुपर्कके बिना होता ही नहीं था। मांसके सम्बन्धमें परस्पर विरोधी विचार मिलते हैं। धर्मशास्त्रका इतिहास भाग १, पृ. ४२० पर मांस भक्षण पर लिखा है-'शतपथ ब्राह्मण (१११७।१।३ ) ने घोषित किया है कि मांस सर्वश्रेष्ठ भोजन है। साथ ही शतपथ ब्राह्मणने यह भी सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि मांसभक्षी आगेके जन्ममें उन्हीं पशुओं द्वारा खाया जायेगा।'
धर्मसूत्रोंमें कतिपय पशुओं, पक्षियों एवं मछलियोंके मांस भक्षणके विषयमें नियम दिये गये हैं । प्राचीन ऋषियोंने देवयज्ञ, मधुपर्क एवं श्राद्धमें मांसबलिकी व्यवस्था दी है। मनु (५।२७-४४) ने केवल मधुपर्क, यज्ञ, देवकृत्य एवं श्राद्धमें पशुहननकी आज्ञा दी है। अन्तमें मनुने अपना यह निष्कर्ष दिया है कि मांसभक्षण, मद्यपान एवं मैथुनमें दोष नहीं है क्योंकि ये स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं। कुछ अवसरों एवं कुछ लोगोंके लिए शास्त्रानुमोदित है किन्तु इनसे दूर रहनेपर महाफलकी प्राप्ति होती है।
शायद इन्हीं प्रवृत्तियोंको ध्यानमें रखकर जैनाचार्योंने मद्य, मांस, मधुके त्यागको ही जैनाचारका आधार माना है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहा है
"त्रसहतिपरिहरणार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये ।
मद्य च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ।।८४॥" अर्थात्-जिन भगवान् के चरणोंकी शरणमें आये हुए मनुष्योंको त्रसहिंसासे बचने के लिए मधु और मांस तथा प्रमादसे बचने के लिए मद्य छोड़ना चाहिए।
इसमें मद्यपानमें सघात न बतलाकर प्रमाद दोष बतलाया है। किन्तु उत्तरकालीन सब श्रावकाचारोंमें मद्यपानमें भी हिंसाका विधान मुख्यरूपसे किया है। पु. सि. में कहा है-मद्य मनको मोहित करता है । मोहितचित्त मनुष्य धर्मको भूल जाता है । और धर्मको भूला हुआ जीव अनाचार करता है।
मधुमें तो त्रसहिंसा होती ही है। आजकल मधुमक्खियोंको पालकर उनसे मधु प्राप्त किया जाता है और उसे अहिंसक कहा जाता है। किन्तु ऐसा मधु भी सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि सेवन करने पर अहिंसक और हिंसकका भाव जाता रहता है।
आजकल पाश्चात्त्य सभ्यताके प्रचारके कारण कुलाचार रूपमें मद्य मांसका सेवन न करनेवाले जैन घरानोंके युवकोंमें भी मद्य मांसके सेवनकी चर्चा सुनी जाती है। उच्चश्रेणीकी पार्टियों में प्रायः मद्य मांस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org