Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ १२ धर्मामृत ( सागार) श्रावकके पाक्षिकादि भेद-आचार्य जिनसेनका महापुराण जैनोंके लिए महाभारत-जैसा है। जैसे महाभारतके शान्ति पर्व में भीष्म युधिष्ठिरको राजधर्म आदिका उपदेश देते हैं उसी प्रकार आचार्य जिनसेनने चक्रवर्ती भरतके द्वारा बनाये गये ब्राह्मण वर्णको जो जैन धर्मका पालक त्यागीसमूह ही था, श्रावक धर्मका उपदेश कराया है। यह उपदेश ३८ से ४० तक तीन पर्वोमें हैं। और उसे गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कन्वय क्रिया नाम दिया है। गर्भान्वय क्रिया तिरपन और दीक्षान्वय क्रियाएँ अड़तालीस हैं। तथा कन्वय क्रियाएँ सात हैं। इन्हें उन्होंने सातवें अंग उपासकाध्ययनांगमें वणित बतलाया है। इन क्रियाओंका कथन करनेसे पूर्व भरत महाराजने उन श्रावकोंको षट्कर्मका उपदेश दिया था। वे षट्कर्म हैं-इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप । अर्हन्तोंकी पूजाका नाम इज्या है। उसके चार भेद हैं-सदार्चन या नित्यपूजा, चतुर्मुख पूजा, कल्पद्रुमपूजा, अष्टाह्निकपूजा। प्रतिदिन अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनालयमें जिनेन्द्रकी पूजा करना सदार्चन या नित्यपूजा है। तथा भक्तिपूर्वक जिनबिम्ब, जिनालय आदिका निर्माण कराना, उनकी पूजा आदिके लिए दानपत्र लिखकर ग्राम आदि देना भी नित्यपूजा है। अपनी शक्तिके अनुसार नित्य दानपूर्वक महामुनियोंकी पूजा भी नित्यपूजा है । महामुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा जो महापूजा की जाती है उसे चतुर्मुखपूजा और सर्वतोभद्र कहते हैं। चक्रवर्तियोंके द्वारा जगत्की आशा पूर्ण करके याचक जनोंको मुंहमागा दान देकर जो पूजा की जाती है वह कल्पद्रुमपूजा है । अष्टाह्निकपूजा तो प्रसिद्ध है । इसके सिवाय एक इन्द्रध्वजपूजा है जिसे इन्द्र करता है। यह सब श्रावकका प्रथम कर्म इज्या है। विशुद्ध वृत्तिके साथ कृषि आदि करना वार्ता है। चार प्रकारका दान है-दयादत्ति, पात्रदत्ति, समक्रियादत्ति, अन्वयदत्ति। इन तीनके अतिरिक्त, स्वाध्याय, संयम और तप ये तीन कर्म हैं। जहाँ तक हम जानते हैं महापुराणसे पूर्वके किसी ग्रन्थमें ये सब पूजाके भेद आदि उपलब्ध नहीं हैं। महापुराणके पश्चात् रचे गये पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें तो इनकी कोई चर्चा नहीं है। सोमदेवके उपासकाध्ययनमें पूजाविधिका विस्तारसे वर्णन है किन्तु इन भेदादिका नहीं है। उसीमें इज्याके स्थानमें देवसेवा तथा वार्ताके स्थानमं गुरूपास्ति रखकर श्रावकके प्रतिदिनके षट्कर्म कहे हैं। यथा "देवसेवा गुरूपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ॥" महापुराणमें कन्वय क्रियाओंका वर्णन करते हए कहा है यह शंका हो सकती है कि जो असि, मषो आदि छह कर्मोसे आजीविका करनेवाले जैन, द्विज या गृहस्थ हैं उनको भी हिंसाका दोष लगता है। परन्तु इस विषयमें हमारा कहना है कि आपका कहना यद्यपि ठीक है आजीविकाके लिए छह कर्म करनेवाले जैन गृहस्थोंको भी थोड़ी-सी हिंसाका दोष अवश्य लगता है । परन्तु शास्त्रोंमें उन दोषोंकी शुद्धि भी बतलायी है। उनकी शुद्धिके तीन अंग हैं-पक्ष, चर्या, साधन । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिंसाका त्याग जैनोंका पक्ष है। किसी देवताके लिए, किसी मन्त्रकी सिद्धिके लिए, अथवा औषधि या भोजन के लिए मैं किसी जीवकी हिंसा नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या है। इस प्रतिज्ञामें यदि कभी प्रमादसे दोष लग जावे तो प्रायश्चित्तसे उसकी शुद्धि की जाती है। तथा अन्त में अपना सब कुटुम्ब भार पुत्रको सौंपकर घरका परित्याग करना चर्या है । और आयुके अन्तमें शरीर, आहार और समस्त प्रकारकी चेष्टाओंका परित्याग कर ध्यानको शुद्धिसे आत्माको शुद्ध करना साधन है। यह सब कथन सद्गहित्व नामकी दूसरी क्रियाके अन्तर्गत आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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