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धर्मामृत ( सागार )
अतः एकके श्रद्धानमें दूसरेका श्रद्धान गर्भित ही है। फिर भी जो देव शास्त्र गुरुकी श्रद्धा तो रखते हैं किन्तु जीवाजीवादि तत्त्वार्थोंके नामसे भी परिचित नहीं होते, वे अपनेको व्यवहारसे भी सम्यग्दृष्टी कहलाने की पात्रता नहीं रखते । सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए उनका भी श्रद्धान परमावश्यक है ।
आशाधरजीने सम्यग्दर्शनके आठ अंगों के लिए पुरुषार्थ के श्लोक उद्धृत किये हैं, रत्नकरण्ड० के नहीं । किन्तु फिर भी वे रत्नकरण्ड० से दो श्लोक उद्धृत करना नहीं भूले । वे श्लोक वास्तव में बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं और वह भी आजके इस युग में । उनका अर्थमात्र यहाँ दिया जाता है
जो मनमें मानका अभिप्राय रखकर घमण्डसे चूर हो अन्य धार्मिकों की अवहेलना करता है, उनका तिरस्कार करता है वह अपने धर्मका ही तिरस्कार करता है; क्योंकि धार्मिकों के बिना धर्म नहीं । अर्थात् धर्मके मूर्तिमान रूप तो धार्मिक हो हैं । अतः उनका तिरस्कार धर्मका ही तिरस्कार है । आज यही सब हो रहा है । कुछ लोगोंको धर्मका उन्माद चढ़ा है । धर्मके मिथ्या अभिनिवेशने उन्हें धर्मोन्मत्त बना दिया है, जो धर्म नहीं है, केवल उन्माद है । दूसरे श्लोकका अर्थ है
अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्मकी परम्पराको छेदने में समर्थ नहीं है । क्योंकि जिसमें अक्षर छूट गये हों, ऐसा मन्त्र विषकी वेदना को दूर नहीं कर सकता ।
अतः आठ अंगसहित सम्यग्दर्शनको ही दर्शनविशुद्धि शब्दसे कहा गया है। आज व्रताचरणकी चर्चा तो जोरोंसे की जाती है किन्तु सम्यग्दर्शन और उसके अंगों तथा मलोंकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता । आचार्य समन्तभद्र के इस कथनको लोग भूल गये हैं- कि 'तीनों कालों और तीनों लोकोंमें सम्यक्त्व के समान कोई अन्य प्राणियोंका कल्याणकारी नहीं है और मिथ्यात्वके समान अकल्याणकारी नहीं है ।'
आज आचार्य अमृतचन्द्रजीके भी इस कथनको भुला दिया गया है - 'उन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमेंसे सर्वप्रथम पूर्ण यत्नोंके साथ सम्यग्दर्शनकी उपासना करना चाहिए; क्योंकि उसके होनेपर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होते हैं ।' सम्यकुचारित्रके बिना मोक्ष नहीं होता । यह तो हम सुनते हैं । किन्तु सम्यग्दर्शनके बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता, इसे कहनेवाले विरल ही हैं ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें चारित्रका प्रकरण प्रारम्भ करते हुए आचार्य समन्तभद्र महाराज कहते हैं"मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्त संज्ञानः ।
रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥"
' दर्शन मोहरूपी अन्धकारके दूर होने पर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति के साथ सम्यग्ज्ञानको प्राप्त हुआ साधु राग द्वेषको दूर करनेके लिए चारित्र धारण करता है ।'
अतः दर्शनमोहकी उपेक्षा करके चारित्र धारण करना श्रेयस्कर नहीं है । अस्तु, असंयमी भी सम्यग्दृष्ट कर्मजन्य क्लेश क्षोण होते हैं और संयमी भी मिथ्यादृष्टिका संसार अनन्त ही होता है। आशाधरजीने श्लोक १३ की भ. कु. च. टीकामें असंयत सम्यग्दृष्टी के सम्बन्ध में कहा है ।
बतलाया
' जैसे कोतवालके द्वारा मारनेके लिए पकड़ा गया चोर जो-जो कोतवाल कहता है वह वह करता है । इसी प्रकार जीव भी चारित्रमोहके उदयसे नहीं करने योग्य भावहिंसा, द्रव्यहिंसा आदि अयोग्य जानते हुए भी करता है; क्योंकि अपने काल में उदयागत कर्मको रोकना शक्य नहीं है । इससे यह भी कि सम्यक्त्व ग्रहण से पहले जिसने आयुका बन्ध नहीं किया है उस सम्यग्दृष्टिके सुदेवपना और सुमानुषपनाके सिवाय समस्त संसारका निरोध हो जानेसे कर्मजन्य क्लेशमें कमी हो जाती है अर्थात् वह मरकर यदि मनुष्य है तो सुदेव होता है और देव है तो मरकर सुमानुष होता । यदि उसने सम्यक्त्व ग्रहणसे पूर्व नरक गतिका बन्ध कर लिया है और पीछे सम्यक्त्व ग्रहण किया है तो प्रथम नरकमें जघन्य स्थिति ही भोगता है । अतः उसके सम्यक्त्वके माहात्म्यसे बहुत-से दुःख दूर हो जाते हैं । इसलिए संयमकी प्राप्ति से पूर्व संसारसे भयभीत भव्य जीवको सम्यदर्शनकी आराधना में नित्य प्रयत्न करना चाहिए ।'
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