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धर्मामृत ( सागार) प्रतिलेखकके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका । इस संस्करणमें उसी प्रतिके आधारसे ज्ञानदीपिकाका प्रथमबार मुद्रण हुआ है और इस तरह एक अलभ्य-जैसे ग्रन्थका उद्धार हुआ है ।
सागारधर्मामत मूलकी एक शुद्ध हस्तलिखित प्रति श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके पुस्तकालयमें है। उसीके आधारपर सागारधर्मामतके मल श्लोकोंका संशोधन किया गया है। इससे कई ऐसे पाठोंका शोधन हुआ जिनकी ओर किसीका ध्यान नहीं था।
इस प्रतिमें ४३ पत्र हैं। प्रारम्भके दो पत्र नहीं हैं। लिपि सुन्दर और सुस्पष्ट है। प्रत्येक पत्र में प्रायः दस पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्तिमें छत्तीस या सैंतीस अक्षर हैं। श्लोकोंके साथ उनकी उत्थानिका भी है । तथा टीकामें 'उक्तं च' करके जो उद्धृत पद्य है वे भी प्रत्येक श्लोकके आगे लिखे हैं। प्रत्येक श्लोकके प्रत्येक पदकी पथक्तताका बोध करानेके लिए उसके अन्तमें ऊपरकी ओर एक छोटी-सी खड़ी पाई लगायी हई है। प्रत्येक पत्रके ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर रिक्त स्थानोंमें टिप्पणके रूपमें टीकासे शब्दार्थ तथा वाक्य आवश्यकतानुसार दिये हैं। इस तरहसे यह प्रति बहुत ही उपयोगी और अत्यन्त शुद्ध है। अन्तमें ग्रन्थकारकृत प्रशस्ति है। उसके अन्तमें लिपि प्रशस्ति है 'संवत् १५३६ वर्षे चैत्रवदि ५ श्री मूलसंघे नन्द्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्री शुभचन्द्रदेवास्तत्प२ भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेवास्तच्छिष्य मुनि श्री रत्नकीर्तिस्तदाम्नाये पंडिल्यवालान्वये अजमेरागोत्रे साधु ईश्वरस्तद्भार्या सवीरी तत्पुत्राः साधु पदमा वील्हा-देल्हा-तोल्हा एतेषां मध्ये साधु देल्हाख्येन सभार्येन इदं शास्त्रं लिखाप्य कर्मक्षयनिमित्तं ज्ञानपात्राय मुनि श्रीरत्नकीर्तये दत्तं ।
ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं भेषजात् व्याधिनुत्पुमान् ।।
पं. आशाधर और उनका सागारधर्मामृत धर्मामतके प्रथम भाग अनगारधर्मामृतकी भूमिकामें ग्रन्थकार पं. आशाधर तथा उनकी कृतियों के सम्बन्धमें प्रकाश डाला गया है । अतः यहाँ केवल सागारधर्मामृतके सम्बन्धमें ही प्रकाश डाला जायेगा।
पं. आशाधरने अपना जिनयज्ञकल्प वि. सं. १२८५ में रचकर समाप्त किया था। अतः उसकी प्रशस्तिमें जिन ग्रन्थोंका नाम दिया है वे उसके पूर्व रचे गये थे। उन्हीं में 'अर्हद्वाक्यरस' 'निबन्धरुचिर' धर्मामत शास्त्र भी है। पं. आशाधरजीने स्वयं 'अर्हद्वाक्यरस'का अर्थ 'जिनागमनिर्यासभूत' अर्थात् 'जिनागमका निचोड़ किया है । और 'निबन्धरुचिर'का अर्थ 'स्वरचित ज्ञानदीपिका पंजिकासे रमणीय' किया है। अतः धर्मामृतके साथ ही उसकी ज्ञानदीपिका पंजिका भी उन्होंने रची थी। पंजिका उस टीकाको कहते है जिसमें श्लोकमें आगत पदोंकी व्युत्पत्ति आदि मात्र होती है, शब्दशः व्याख्यान नहीं होता। अतः ज्ञानदीपिका पंजिकासे धर्मामृतके श्लोकोंको समझने में पूर्ण साहाय्य न मिलनेसे एक ऐसी टीकाकी आवश्यकता थी जिसमें प्रत्येक श्लोकका अन्वयार्थ पूर्वक व्याख्यान हो और कुछ प्रासंगिक शास्त्रीय चर्चा भी निबद्ध हो । उसीके लिए पोरवाड़वंशके समुद्धर श्रेष्ठीपुत्र महीचन्द्र की प्रार्थनापर सागारधर्मामृतको भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका वि. सं. १२९६ में नलकच्छपुरके नेमिजिनालयमें रचकर पूर्ण हुई। महीचन्द्रने ही उसको प्रथम पुस्तक लिखी। उसके पश्चात् वि. सं. १३०० में अनगारधर्मामृतपर भी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका रची गयी। इस प्रकार ज्ञानदीपिकाके पश्चात् भव्यकुमुदचन्द्रिका रचो गयो। यह बात उस टीकाके प्रारम्भिक मंगलश्लोकके पश्चाद्वर्ती श्लोकसे भी पुष्ट होती है । यथा
"समर्थनादि यन्नात्र, ब्रुवे व्यासभयात् क्वचित् । तज्ज्ञानदीपिकाख्यैतत्पञ्जिकायां विलोक्यताम् ।।"
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