Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ प्रस्तावना इस असंयत सम्यग्दृष्टिको आशाधरजीने निश्चय सम्यग्दृष्टि कहा है और कहा है कि वह यह श्रद्धा रखता है कि विषयजन्य सुख हेय है और आत्मिक सुख उपादेय है। वह अपनी निन्दा-गर्दा करता हुआ भी चारित्रमोहके उदयके परवश होकर इन्द्रिय सुख भोगता है और अन्य जीवोंको पीड़ा पहुँचाता है अर्थात् इन्द्रियसंयम और प्राणीसंयमसे रहित असंयत सम्यग्दृष्टि है। इसी अव्रती किन्तु सम्यग्दर्शन मात्रसे शुद्ध असंयत सम्यग्दृष्टिके सम्बन्धमें आचार्य समन्तभद्रने अपने रत्नकरण्डमें लिखा है कि वह मरकर नारक, स्त्री, नपुंसक, तिर्यंच नहीं होता। नीचकुलमें जन्म नहीं लेता, विकलांग, अल्पायु, दरिद्री नहीं होता । आदि, अधिक क्या, सम्यक्त्वके बिना अनन्त संसार सान्त नहीं होता। इस सम्यक्त्वकी प्राप्ति के लिए कोरा व्रताचरण आवश्यक नहीं है। आवश्यक है देवशास्त्र, गुरु और सप्ततत्त्वविषयक यथार्थ श्रद्धा। नरक और देवगतिमें व्रताचरण नहीं होता, फिर भी सप्त तत्त्वोंकी श्रद्धासे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । ___अष्टमूलगुणका धारण भी सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है । सम्यक्त्वके बिना अष्टमूलगुण धारण करने व्रती नहीं होता। देशव्रती पंचम गुणस्थानवर्ती होता है और असंयत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती होता है। सम्यक्त्वके बिना पाँचवाँ आदि गुणस्थान नहीं होता। अतः सम्यक्त्वपूर्वक ही अष्टमूलगुण यथार्थ होते हैं। केवल मद्य-मांस आदिका त्याग करनेसे बुद्धि शुद्ध नहीं होती, बुद्धि शुद्ध होती है मिथ्यात्वके त्यागपूर्वक सम्यक्त्वके ग्रहणसे । दूसरे अध्यायके १९वें श्लोक में आशाधरजीने कहा है "यावज्जीवमिति त्यक्त्वा महापापानि शुद्धधीः । जिनधर्मश्रुतेर्योग्यः स्यात्कृतोपनयो द्विजः ॥" इसकी टीकामें आशाधरजीने 'शुद्धधीः' का अर्थ किया है-'सम्यक्त्वविशुद्धबुद्धिः सन्'-अर्थात् सम्यक्वसे विशुद्धबुद्धि होकर जीवनपर्यन्तके लिए महापाप मद्यादिको छोड़कर उपनयन संस्कारवाला द्विज-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जिनधर्मके श्रवणका अधिकारी होता है । यही कथन पुरुषार्थसिद्धयुपायमें आया है "अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्त्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥" यहाँ भी कर्ता 'शुद्धधियः' है। सम्यक्त्वसे विशुद्ध बुद्धिवाले जन इन आठोंको छोड़कर जिनधर्मकी देशनाके पात्र होते हैं । अतः यह अर्थ करना कि इन महापापोंको छोड़कर विशुद्ध बुद्धि हो गयी है जिनकी, ठीक नहीं है । यदि ऐसा अर्थ होता तो आशाधर अपनी टीकामें 'शुद्धधीः'का अर्थ 'सम्यक्त्वविशुद्धबुद्धिः' न करते । वसुनन्दिश्रावकाचारमें भी पहली प्रतिमाका स्वरूप कहते हुए 'सम्मत्त विसुद्धमई' विशेषण दिया है, जो बतलाता है कि बुद्धिकी विशुद्धिका कारण सम्यक्त्व है, मात्र मद्यादि त्याग नहीं है। बहुत-से अन्य जन मद्य-मांसका सेवन नहीं करते। किन्तु मात्र इतनेसे उन्हें 'शुद्धधीः' नहीं कह सकते। उसके लिए सम्यक्त्व अनिवार्य है, किन्तु सम्यक्त्वकी प्राप्ति के लिए मद्यादिका त्याग अनिवार्य नहीं है। सेवन नहीं क त्याग करना एक बात नहीं है। जैनोंमें ही मद्य-मांसका सेवन नहीं होता। यह उनका कुलक्रमागत धर्म है। किन्तु इसे त्याग शब्दसे नहीं कहा जाता । अभिप्रायपूर्वक नियम लेने का नाम त्याग है। वह चतुर्थगुणस्थानमें नहीं होता, पाँचवेंमें होता है। अतः असंयत सम्यग्दृष्टिका जो स्वरूप गोम्मटसार जीवकाण्डमें कहा है कि वह न इन्द्रियोंसे विरत होता है और न स-स्थावर जीवोंको हिसासे विरत होता है केवल जिनोक्त तत्त्वोंपर श्रद्धा रखता है वह अविरत सम्यग्दृष्टि है, वह यथार्थ है। आशाधरजीने इसीका अभिप्राय लेकर प्रथम अध्यायका १३वा श्लोक रचा है। और ज्ञानदीपिकामें अपने कथनके समर्थनमें उक्त गाथाको प्रमाण रूपसे उद्धृत भी किया है । अस्तु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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