Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 18
________________ प्रस्तावना चलता है और उनमें जो सम्मिलित होते हैं वे उनसे बच नहीं सकते। इसी प्रकार होटलों में खानपानका प्रचार बढ़ रहा है। वह सभ्यतामें आ गया है। और धन सम्पन्न स्त्री-पुरुष उसमें अपनी शान समझते हैं। इस तरह जैनोंमें भी मद्य मांस सेवनकी प्रवृत्तिको बल मिल रहा है। इसे रोकना आवश्यक है। अन्यथा जैनधर्मके आचारका मूल ही नष्ट हो जायेगा। रात्रिभोजन-रात्रि भोजन तो बहुत अधिक प्रचलित हो गया है। विवाह-शादियोंमें रात्रिभोजन चल पड़ा है। अब दिनके खानेवाले बहुत ही कम रह गये हैं। रात्रिभोजन तो स्वास्थ्यको दृष्टिसे भी हानिकर है किन्तु उसकी ओर भी अब कोई ध्यान नहीं देता। यह जैन होनेका एक चिह्न था। जैनका मतलब ही था रातमें भोजन न करनेवाला और पानी छानकर पीनेवाला । आज दोनों ही परम्पराएँ समाप्त है । लोग पानी छानना भी भूल गये हैं। कुओंका स्थान नलोंके ले लेनेसे भी इस प्रवृत्तिको बल मिला है। आजके लोग कहते हैं कि पुराने समयमें बिजलीका प्रकाश न होनेसे रातमें भोजनको बुरा कहा है; क्योंकि अन्धकारमें दिखायी नहीं देता। किन्तु बिजलीका प्रकाश जितना तेज होता है उसमें उतने ही अधिक जीवजन्तु आते हैं। और वे सब भोजनमें गिरकर मनुष्योंका आहार बनते हैं। यह तो सूर्यका प्रकाश ही ऐसा है जिसमें क्षुद्र जीवजन्तु छिपकर बैठ जाते हैं । वह उन्हें आकृष्ट नहीं करता। दिनमें भोजन करनेकी इतनी अच्छी व्यवस्था भी उठ रही है यह बहुत ही खेदकी बात है। रातमें अन्न भक्षण न करनेको भी प्रवृत्ति अब उठ रही है। यद्यपि अन्नके स्थानमें सिंघाड़े आदिके व्यंजन खानेकी प्रवृत्ति भी कुछ प्रदेशोंमें है किन्तु अब उसमें भी कमी आ रही है। आशाधरजी ने पाक्षिक श्रावकके लिए रात्रिमें पान इलायची आदि तथा जल और औषधीको लेनेकी छूट दी है जो उचित हो है। आशाधरजी ने वृद्ध आचार्योंके मतसे आठ मूलगुण अन्य प्रकारसे बतलाये हैं । वे हैं "मद्य, मांस, मध, रात्रिभोजन और पांच उदुम्बर फलोंका त्याग, जीवोंपर दया और छना जल तथा पंचपरमेष्ठीकी भक्ति।" ये आठ मूलगुण ऐसे हैं जिनमें एक साधारण जैन गृहस्थके लिए उपयोगी सब आवश्यक आचार आ जाता है। आजके समयमें इन अष्ट मूलगुणोंके प्रचारको बहुत आवश्यकता है। आचार्यों और मुनिगणोंको इस ओर ध्यान देना चाहिए और जो श्रावक जीवन भरके लिए इन आठ मूलगुणोंका पालन करे उसका ही आहार ग्रहण करना चाहिए। जैनधर्मकी दीक्षा-पाक्षिक धावकका आचार बतलाते हुए आशाधरजी ने महापुराणमें प्रतिपादित दीक्षान्वय क्रियाका अनुसरण करते हुए जैनधर्मकी दीक्षा देनेका भी विधान किया है। ये क्रियाएँ आठ हैअवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, दृढ़चर्या और उपयोगिता। दूसरे अध्यायके २१वें श्लोकमें इन आठों क्रियाओंको संक्षेपमें इस प्रकार कहा है-'अन्य मिथ्यादृष्टि कुलमें जन्मा हुआ व्यक्ति सबसे प्रथम धर्माचार्य या गृहस्थाचार्यके उपदेशसे जीवादि तत्त्वार्थोंका निश्चय करे। फिर श्रावकधर्म अष्टमूलगुण आदिको धारण करते हुए गुरुमुखसे पंचनमस्कार महामन्त्रको धारण करे । और अबतक जिन मिथ्या देवोंको पूजता था, उनको सदाके लिए विसर्जित कर दे। उसके पश्चात् द्वादशांग और चतुर्दशपूर्वसे उद्धार किये गये ग्रन्थोंका अध्ययन करने के पश्चात् अन्य मतके भी शास्त्रोंका अध्ययन करे । और प्रत्येक मासकी दो अष्टमी और दो चतुर्दशीकी रात्रि में रात्रिप्रतिमायोग धारण करके द्रव्य पाप और भाव पापका नाश करे।' यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यह जिन धर्मकी दीक्षाका विधान केवल द्विजातिब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यकुलमें जन्म लेने वालोंके लिए है क्योंकि उन्हें ही जिनमुद्रा धारण करनेका अधिकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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