Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ प्रस्तावना अर्थात-विस्तारके भयसे इस टीकामें यदि कहीं समर्थन आदि न कहा गया हो तो उसको ज्ञानदीपिका नामक पंजिकामें देखनेका कष्ट करें। इसोसे ज्ञानदीपिका उद्धरणप्रधान है। उसमें आशाधरजीने अपने कथनके समर्थन में पूर्वाचार्यों और ग्रन्थकारोंके ग्रन्थोंसे सैकड़ों पद्य उद्धृत किये हैं। उनके अध्ययनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सागारधर्मामृत अपनेसे पूर्वमें रचे गये न केवल श्रावकाचारोंका किन्तु अन्य भी उपयोगी आगमिक और लौकिक ग्रन्थोंका निर्यासभूत है जैसा कि ग्रन्थकारने स्वयं कहा है । सागार धर्मामृतके आधारभूत ग्रन्थ सागारधर्मामृतसे पूर्वमें रचे गये श्रावकाचार सम्बन्धी प्रसिद्ध ग्रन्थ है-रत्नकरण्डश्रावकाचार, महापुराणके अन्तर्गत कुछ भाग, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, यशस्तिलकके अन्तर्गत उपासकाध्ययन, अमित गति श्रावकाचार, चारित्रसार, वसूनन्दिश्रावकाचार, पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका आदि । इन सभीका उपयोग आशाधरजीने किया है । और अपनी ज्ञानदीपिकामें उनसे अनेक उद्धरण दिये हैं। सागार धर्मामृतका विशिष्ट विषय परिचय १. प्रथम अध्याय प्रथम अध्यायका आरम्भ सागारके लक्षणसे होता है। जो अनादि अविद्यारूपी दोषसे उत्पन्न चार संज्ञा-आहार, भय, मैथुन, परिग्रहरूपी ज्वरसे पीड़ित हैं, निरन्तर स्वज्ञानसे विमुख हैं और विषयों में फंसे है, विषयासक्त हैं । वे सागार या गृहस्थ हैं। सागारके इस लक्षणमें साधारणतया सभी गृहस्थोंका अन्तर्भाव हो जाता है। मगर गृहस्थोंमें तो सम्यग्दृष्टी और देशसंयमी भी आते हैं। अतः सागारके दूसरे लक्षणमें 'प्रायः' पद दिया है । 'प्रायः' का अर्थ होता है 'बहत करके' । कामिनी आदि विषयों में 'यह मेरे भोग्य हैं' और 'मैं इनका स्वामी हूँ' इस प्रकारका ममकार और अहंकार उनमें पाया जाता है। चारित्रावरण कर्मके उदयसे सम्यग्दृष्टियोंमें भी इस प्रकारका विकल्प होता है । किन्तु जन्मान्तरमें रत्नत्रयका अभ्यास करने के प्रभावसे इस जन्ममें साम्राज्यका उपभोग करते हुए भी तत्त्वज्ञान और देश संयममें उपयोग होनेसे जिन्हें नहीं भोगते हुएकी तरह प्रतीत होते हैं उनके लिए 'प्रायः' शब्दका प्रयोग किया है। सम्यग्दर्शन-आगे सम्यक्त्वका माहात्म्य बतलाते हुए कहा है-अविद्याका मूलकारण मिथ्यात्व है और विद्याका मूलकारण सम्यग्दर्शन है। संज्ञोतियंच पशु होकर भी सम्यक्त्वके माहात्म्यसे हेय और उपादेय तत्त्वको जानते हैं। किन्तु मनुष्य यद्यपि विचारशील होते हैं तथापि मिथ्यात्वके प्रभावसे हिताहितके विवेकसे रहित पशुओंकी तरह आचरण करते हैं। सम्यग्दर्शनको उत्पत्ति पाँच लब्धिपूर्वक ही होती है। उसके बिना नहीं होती । अतः श्लोक छठे में पांच लब्धियोंको बहुत संक्षेपमें कहा है। श्लोक बारहवें में सम्पूर्ण सागार धर्ममें निर्मल सम्यक्त्व, निरतिचार अणुव्रत, गुणवत, शिक्षाव्रत और मरते समय विधिपूर्वक सल्लेखना गिनाये हैं । वस्तुतः इतना ही सागार धर्म है तथा श्रावकाचारों में इनका ही कथन प्रधानरूपसे पाया जाता है। इसकी ज्ञानदीपिकामें आशाधरजीने रत्नकरण्ड और पुरुषार्थ सि.से श्लोक उद्धृत किये हैं। रत्नकरण्डमें सच्चे देव शास्त्र गुरुके तीन मूढ़ता और आठ मद रहित तथा आठ अंग सहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है और पु. सि. में जीवाजीवादि तत्त्वार्थोके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है। इन दोनोंको ही उद्धृत करनेसे आशाधरजीका यही अभिप्राय है कि जीवाजोवादि तत्त्वार्थोंका तथा देव शास्त्र गुरुका यथार्थ श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है । दोनों पर श्रद्धान हुए बिना सम्यक्त्व नहीं होता; क्योंकि जीवाजीवादि तत्त्वोंका कथन तो देव ने ही किया है । उन्हीं के मुखसे निसृत वाणीका संकलन शास्त्र में है और उन्हींके अनुयायी सद्गुरु होते हैं । [२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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