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१८ ]
श्री धन्यकुमार चरित्र
इस समय
इसके बाद पुण्यात्मा धन्यकुमार निर्विघ्न विना परिश्रम जल बाहर निकल कर अपने नगरकी ओर चला और शहर के बाहर पहुँचकर विचारने लगा कि - देखो ! तो शुभोदयसे मरते २ में किसी तरह बचा हूं, यदि फिर भी उन लोगोंका संग रहेंगा तो नहीं मालूम क्या होगा ? - इसीलिये मुझे घरपर जाना योग्य नहीं है क्योंकि संसार में बाह्य शत्रुओंका भय बना रहता है इसलिये वे छोड़े जा -सकते परन्तु घरका पुरुष यदि शत्रु हो जाय तो बहुत बुरा होता है । (फिर उसे बन्धुताका भाव नहीं रहता और फिर उसका परिणाम भी यही होता है कि ) जिस प्रकार कषात्यादि अभ्यन्तर शत्रु सहसा नहीं छोड़ े जा सकते उसी तरह उन लोगों का सम्बन्ध छूटना मुश्किल हो जाता है ।
इस प्रकार अपने शुद्ध मनमें विचार कर धन्यकुमार वहांसे दूसरे देशकी ओर चल दिया। चलते २ उसने किसी खेत में एक किसानको हल हांकते हुये देखा और विचारा कि देखो ! मैंने अपनी लीलासे कितनी कला कौशल विद्यायें सीखी हैं, परन्तु यह तो कोई अपूर्व ही विद्या मालूम पडती हैं । इतना विचार कर किसानके पास गया और आश्चर्य से उसकी ओर अवलोकन करता हुआ वहीं पर बैठ गया ||२८||
कृषक नाना प्रकारके अलंकारोंसे भूषित इसका रूपातिशय देखकर बहुत आश्चर्यान्वित हुआ और धन्यकुमारसे बोला ||२९||
हे स्वामी ! मैं कुटुम्वी हूँ, कुछ शुद्ध दही और भात लाया हूं, मुझपर अनुग्रह पूर्वक आप भोजन करें ||३०|| हे चतुर ! भोजन करके मुझे और मेरी प्रार्थनाको सफल
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