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तृतीय अधिकार
[ ३१ इस प्रकार विचार कर वह मायावी लोभके वश हो ब्रह्मचारी बन गया कपटभावसे कायक्लेशादि तपश्चरण करने लगा और भोले लोगोंमें अपने गुणोंकी प्रशंसा करने लगा। ऐसे ही देशोमें घुमता हुआ भूतिलकपुरमें आ पहुंचा।
जब लोगोंके मुखसे ब्रह्मचारीकी धनपतिने प्रशंसा सनी तो उसी वक्त उसके पास गया और नमस्कार कर उसे अपने मन्दिरमें लिवा लाया । कुटलात्मा ब्रह्मचारी भी झूठे तपश्चरणसे लोगोंको अनुरक्त करके बगुलेकी तरह जिनालयमें रहने लगा।
किसी दिन धनपतिने पापी ब्रह्मचारीसे कहा-महाराज ! मुझे व्यापारार्थ दूसरे देश जाना है इसलिये आपसे प्रार्थना है कि जबतक मैं पीछा न लौटू आप जिनालयकी रक्षा करना ।
ब्रह्मचारीने यह कहकर टाल दिया कि हम यहां नहीं रहेंगे (सच है कि जो लोग अंतरङ्गके काले होते हैं उनकी भीतरो बातें कौन जान सकता है) ठीक यही हालत सरल स्वभावी धनपतिकी हुई। वह ब्रह्मचारीके भीतरी दिलकी बात न जानकर उसके इन्कार करने पर और भी आग्रह करने लगा और किसी तरह उन्हें रक्षाका भार सौपकर आप चला गया ।
इधर मायावी ब्रह्मचारीका दाव लग गया सो उसने व्यसनोंके द्वारा जिनालयके सब उपकरणोंको तीन तेरह कर दिये । परन्तु यह पार कबतक छिा सकता था सो ब्रह्मचारीके शरीर में कोढ फूट निकला, सारा शरीर दुर्गन्धमय हो गया, उसके द्वारा बड़ा ही दुःखी होने लगा।
सच कहा है-अधिक पापका अथवा पुण्य का फल प्रायः
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