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चतुर्थ अधिकार
इन सप्त गुणोंसे युक्त हो उन उत्तम पात्र मुनिराजको मधुर प्राशुक, निर्दोष, तृप्तिकारक और तपवर्द्धक खीरका आहार देने लगी।
मनिराज को आहार करते हुये देखकर अकृतपुण्य बहुत आनन्दित हुआ। उससे उसे बहुत पुण्यका बन्ध हुआ वह विचारने लगा
अहा ! आज मैं कृतार्थ हुआ, मैं धन्य हूँ, पुण्यवान हूं... मैं बहुत ही सुखी हुआ, आजसे मैं महादाता कहलाया.. जन्म सफल हुआ, गृहस्थाश्रम भी आज ही कृतार्थ हुआ, आज मुझे बहुतही पुष्य होगा और इसीसे स्वर्गादि सुख भी मिलेगा।
देखो न ! आज मैं कितना भाग्यशाल हूँ जो देव राजा, महाराजा, मनुष्य, विद्याधर, महनीय और वन्दनीय महापात्र मेरे घर में भोजन कर रहे हैं, इन्हीं पवित्र भाव-.. नाओंसे शुद्ध हृदय अकृतपुण्यने अपने सरल भावोंके द्वारा बहुत कुछ पुण्य सम्पादन कर लिया, जो स्वर्गादि सुखका कारण हैं। __उधर जितेन्द्रिय योगीराजने भी खड़े२ शांत भावोंसे स्वाद वगैरहका विचार न कर पाणिपात्र आहार कर दाता को पावन किया और बाद उन्हें शुभाशीर्वाद देकर आप ध्यानाध्ययनके लिये वन विहार कर गये । ___ मुनिराज अक्षीणमहानस ऋद्धिसे विभूषित थे। शास्त्रों का यह लेख है कि-जिस दाताके यहां उक्त ऋद्धिधारक साधुओंका आहार हो जाता है फिर उस दिन उसके यहां भोजन सामग्री कम नहीं होती, उससे चक्रवतिके सैन्य
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