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पंचम अधिकार
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माता ! तू नहीं जानती कि मैं तेरा पुत्र हैं परन्तु पात्र दान और व्रतादिकी शुभ भावनाके फलसे तथा णमोकार मन्त्रके जपने से मुझे स्वर्गमें देव पद मिला हैं । इसलिये व्यर्थ ही अब क्यों रो रही है ? इससे तो उल्टा पापकह बन्ध होता है ।
देख ! स्वर्ग बड़ा ही उत्तम स्थान है, उसमें सदा ही सुख रहता हैं । बहुत उत्तमर विभूति है जहां दुःखका नाम तक नहीं । वहाँके वैभवका वर्णन कुछ तुझे भी सुनायें देता हूँ ।
संख्यात और असंख्यात योजन चौड़े पंच वर्णके विमाना हैं उनमें मणिमय जिनालय, महल और शैल बने हुये हैं, इच्छाके माफिक दूध देनेवाली गायें हैं, कल्पवृक्ष हैं और रत्न श्रेष्ठ चिन्तामणियां हैं, लावण्य रसको खानि बहुत-सी देव सुन्दरियां हैं तो यों समझ कि उत्तमर जितनी सुख सामग्री है वह सब एक ही जगह इकट्ठी कर दी गई है ।
जहाँ दुःखी, दीन, रोगी, मूर्ख, निस्तेज, कुरुप और दरिद्री तो स्वप्न में भी नहीं दीख पड़ते हैं । न दुःखपद ऋतु है, न शीत है, न उष्ण है और न रात्रि दिनका ही भेद है । थोड़ में यों कह दूं कि वहां ऐसी कोई वस्तु नहीं हैं जो दुःख जनक हो, किन्तु सदा सुख जनक साम्यकाल रहता है उसका वर्णन करना कवि लोगोको भी जरा मुश्किल है इत्यादि सुख पूर्ण सौधर्म स्वर्ग में मैंने बहुत पुण्यसे जन्म लिया है ।
यदि मैं यह भी कहू कि मैं सुख समुद्र में निवास करता हैं तो कुछ अत्युक्ति नहीं कही जा सकती । इसलिये माता ! अब तुम शोक छोड़ो और मोहरूप शत्रुका नाश कर देव दुर्लभ संयम स्वीकार करो तो बहुत अच्छा हो ।
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