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श्री धन्यकुमार चरित्र द्वारा शुभ गति होती है, धर्म मोक्षका कारण है इसलिये नमस्कारके योग्य है, धर्मको छोड़कर कोई उत्तम वस्तु नहीं दे सकता, धर्मका बीज सम्यग्दर्शन है, धर्म में मैं भी अपने चित्तको लगाता हूं, हे धर्म ! अब तुझे भी उचित है कि संसारमें गिरनेसे मुझे बचावे । इति श्री सकलकीर्ति मुनिराज रचित धन्यकुमार चरित्रमें धन्यकुमारके राज्यलाभका वर्णन नाम छठ्ठा
अधिकार समाप्त हुआ ॥६॥
सातवां अधिकार धन्यकुमारका सर्वार्थसिद्धि में गमन वीतरागजगन्नाथांस्त्रिजगद्भव्यवन्दितान् ।
विश्वप्राणिहितावन्दे शिरसा परमेष्ठिनः ।। एक दिन धन्यकुमारके मनमें यह विचार उठा कि किसी तरह धन सफल करना चाहिये सो उसने बड़े२ उचे जिन मन्दिर बनवाना आरम्भ किया और उनमें विराजमान करने के लिये सुवर्ण और रत्नोंकी सुन्दर प्रतिमायें बनवाई । चारों संघको बुलवाकर बहुत कुछ उत्सवके साथ प्रतिष्ठा करवाई। खुब धन खर्च किया । ये सब काम केवल अपने भलेके लिये किये थे।
धन्यकुमार प्रतिदिन अपने घरके जिन चैत्यालयमें बहुत कुछ भक्ति तथा महोत्सवके साथ पूजन किया करता था और दूसरोंको भी करने के लिए प्रेरणा करता था। क्योंकि जिन पूजा सब सुखको देनेवाली है ।।
जब मुनियोंके आहारका वक्त आता तब स्वयं अपने
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