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श्री धन्यकुमार चरित्र वहां भी जब देखा कि शांति नहीं है तब इस इच्छासे कि वनमें जरूर ही कुछ न कुछ आराम मिलेगा वहांसे चलकर वनमें पहुंचा । और किसी वृक्ष के नीचे बैठना है चाहता था कि इतने में प्रचण्ड वायु चलनेसे खड्गकी तरह तीक्ष्ण पत्र ऊपरसे गिरे। गिरते ही शरीर खण्ड खण्ड हो गया।
वहां से भी उसी दशामें दूसरे वनमें गया सो,वहां क्रि यक सिंह व्याघ्रादि हिंस्र जीव खाने लगे उसी वक्त कितने नारकी लोग और भी आकर उसे यह इशारा करके कि देख ! पहले तो बहुतसो परस्त्रीकी जीवनी खराब की थी
और अब भी उस सुखका अनुभव कर ऐसा कहकर बलात जलती हुई लोहकी पुतलीसे आलिङ्गन करा देते थे।
कितने संडासीके द्वारा उसके मुखको जबरदस्तीसे चीर कर मद्यकी तरह गरम तांबा पिलाते थे। जितने दुःखह तथा सब दुःखके कारण रोग हैं वे सब नारकियोंके शरीरमें स्वभाव हो से हो जाते हैं ।
उन्हें प्यास इतना अधिक सताती है कि यदि सारा समुद्र पी जाय तब भो वह न मिटै इतने पर भी जलकी एक बन्द तक नहीं मिलती। ___ संसार मात्रके अन्नसे भी न मिटनेवाली भूख हृदय जल' देती है परन्तु तिल मात्र तक अन्न खानेको नहीं मिलता वहां शीत इतनी है कि एक लाख योजन मनका लोह पिंड दालते ही पानी हो जाता हैं, और इतनो हो अधिक गरमी रहती है।
इस प्रकार नरकमें परस्पर में दिये हये और मन वचन कायकी बुरी वृत्तिसे उपार्जन किये हुवे महा पापके उदयसे
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