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तृतीय अधिकार
[३५ इस समय पापका बड़ा ही दारूण उदय होनेसे मुझे तो - यहां कोई रक्षक भी नहीं दीख पड़ता। हा ! इस घोर दुःख
समुद्रसे क्योंकर मैं पार हो सकूगा ? हा ! दैव (कर्म) ने मेरे "शिर पर बड़ी भारी यातनाका पहाड़ गिरा दिया।
यह तो इधर अपने प्रकृत कर्मोकी प्रायश्चित वहीसे भीतर बाहर जल ही रहा था कि इतनेमें कितने नारकियोंने क्रोधित होकर इसके शरीरके पुद्गरादि शस्त्रोंसे खण्ड२ कर दिये, कितने निर्दयी पापियोंने यह कह कर कि देख ये वे ही नेत्र हैं न ? जिससे बुरी तरह दूसरेको ओर देखा था, झटसे नेत्र उखाड़ लिये, कितने दुर्बुद्धियोंने हृदयमें उत्पन्न हुये पाप विकारसे उसके उदरको फाड़कर सब आतें तोड़ डाली, कितनोंने कृकच (करोत) के द्वारा उसके शरीरको चीर डाला, कितने अधम शरीरके तिल बराबर खण्ड२ करके और अधिक दुःख देने लगे।
नारकियोंके शरीरके टुकड़े पारेकी तरह मिल जाते हैं क्योंकि जबतक आयुकी स्थितिका नाश न होगा तब तक उनकी मृत्यु न होकर ऐसी ही अवस्था होती रहेगी।
बिचारे ब्रह्मचारीके जीवका एक ओर तो वेदनासे छूटकारा हुआ ही नहीं था कि इतने में कितने नारकियोंने आकर प्रचुर दुःख देनेकी इच्छासे वहांसे उठा लाकर उसे गरम तेलकी कढाईमें डाल दिया। सारा शरीर देखते२ जल गया।
उसको शांतिके लिये वहांसे निकालकर वैतरनी नदीके दुर्गंधित जल में डूबकी लगाई परन्तु वहां भी उसे शांति न मिली । क्योंकि वह जल मांस तथा खूनकी तरह अत्यन्त हो ग्लानिकारक होता है सो उससे सन्ताप और भी अधिक बढ़ गया ।
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