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श्री धन्यकुमार चरित्र यह सुनकर बलभद्रको बड़ी ही दया आई सो उसने अकृतपुण्यकी मातासे कह दिया-तू मेरे घरसे दूध, घी, चावल शक्कर अपने घर ले जाकर खीर बनाना और उसे पुत्रको खिलाकर उसकी अभिलाषा पूरी करना ।
बलभद्रसे कहे अनुसार वह चांवल वगैरह अपने घर लाई और पुत्रसे बोली
पुत्र ! आज मैं तुझे खीर खानेको दूगी सो तू घर पर जल्दी हो आ जाना । अकृतपुण्य मातासे यह कहकर कि- . जैसा तुम कहती हो वही करूगा, गायके बच्चोंको लेकर खुशीके साथ वनमें चला गया। उधर उसकी माताने खीर बनाई। इतने में मध्याह्न होते२ अकृतपुण्य भी घर पर आ गया । उसे वहीं बैठाकर और यह कह कर-पुत्र ! यदि कोई साधु हमारे घर पर आ जावें तो यहांसे जाने मत देना . उन्हें दान देकर बादमें अपन खावेंगे । दान, पुण्यप्राप्तिका कारण है। देख ! उत्तम पात्रकों दान देनेसे हम लोगोंको' जनम२ में ऐसा ही उत्तम आहार मिला करेगा और-सब तरहका सुख भी मिलेगा ।।
उत्तम दान देनेसे ही गृहस्थाश्रम सार्थक होता है दोनों लोकमें सुयश फैलता हैं, पुण्य कमंका बन्ध होता हैं । दानी लोगोंको उत्तम सुख सम्पत्ति मिलती है। जिन लोगोंके यहां उत्तम पात्रोंकों दान नहीं दिया जाता है उनका गृहस्थाश्रम पत्थरको नावकी तरह है, पापका कारण है, अशुभ हैं और दुर्गतिको देनेवाला है।
देख ! हमने पहले दान नहीं दिया इसीसे तो आज दरिद्रताका दुःख सहना पड़ा है और यही कारण है कि हमको उत्तम२ भोजन नहीं मिलता। इसलिए दान जरुर देना।
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