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तृतीय अधिकार
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इसी देश में भूतिलक नाम सुन्दर नगर था। उसमें महा- . धनी धनपति वैश्य रहता था। धनपति बुद्धिमान, महादानी व्रती और सदा शुभ कर्म करनेवाला था।
एक दिन उसने अपने निर्मल चित्तने विचारा कि लक्ष्मी पुण्यके उदयसे होती है। मेरी समझमें उसका फल केवल पात्रदान होना चाहिये । परन्तु जो उत्तम पात्र हैं वे तो केवल आहारको छोड़कर और कुछ भी कभी नहीं लेते हैं. और न निग्रंन्थ साधुऔको वस्त्र, धनादि दिये ही जा सकते हैं क्योंकि उनसे उनकी निग्रंथतामें बाधा आती है।
इसलिये बड़े २ ऊंचे जिनालय बनवाये जावें, जिन भगवानको प्रतिमायें बनवाई जावें और उनकी प्रतिष्ठा करवाई जावे तो अवश्य इन शुभ कर्मोके द्वारा लक्ष्मी सार्थक हो सकती है और कल्पलताकी तरह इच्छित फल दे सकती है। क्योंकि देखो !
जिन मन्दिरोमें कितने जिन भगवानकी पूजासे, कितने नमस्कार, स्तवन, दर्शन, गीत, नृत्य और वादित्रसे, कितने अभिषेकसे, कितने धर्मोपकरणादिके दानसे, कितने उद्यापनादिसे और कितने यात्रा करनेसे बड़े भारी पुण्य कर्मका उपार्जन करते हैं। उनमें योगिराज भी रहते हैं उनके द्वारा धर्मकी प्रवृति होती है और धर्म द्वारा भव्य पुरूष स्वर्गादि सुखके अनुभोक्ता होते हैं इत्यादि नाना तरहके अच्छे२ कर्मोसे गृहस्थ लोग जिन मन्दिरोंमें पुण्य सम्पादन किया करते हैं।
इसलिए यदि यह कहा जाय कि धनी लोगोंको लक्ष्मी का वास्तविक फल जिन मन्दिरका निर्माण तथा उद्धार कराना छोड़कर और कुछ नहीं है तो कुछ बुरा नहीं कहा
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