Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Author(s): Kamalratnasuri
Publisher: Adhyatmik Prakashan Samstha

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Page 6
________________ १. सात क्षेत्रों आदि की व्याख्या तथा उनके द्रव्यकी व्यवस्था के बारेमें शास्त्रीय मार्गदर्शन : सात क्षेत्र के नाम :- १. जिनप्रतिमा २ जिनमंदिर ३. जिनागम ४. साधु ५. साध्वी ६. श्रावक ७. श्राविका १. जिनप्रतिमा :- जिनप्रतिमा की पूजाके लिए किसीभी व्यक्तिने भक्ति से जो द्रव्य अर्पण किया हो वह प्रतिमाजी के अंगपूजा का देवद्रव्य कहा जाता है । इस द्रव्य का उपयोग नई प्रतिमाजी भराने में होता है । प्रभुजी की आंगी-चक्षु आदि बनाने के लिए कर सकते हैं । लेप करा सकते हैं । प्रतिमाजी के रक्षण के सभी खर्चमें उपयोग कर सकते हैं । इस खाते का द्रव्य अन्य किसीभी खाते में काम में नहीं ले सकते । सिर्फ प्रभु प्रतिमाजी के उपर्युक्त कार्य में खर्च कर सकते हैं । २. जिनमंदिर :- यह द्रव्य भी देवद्रव्य ही हैं। (अ) च्यवनकल्याणक :सुपने की बोली (चढावे) (ब) जन्मकल्याणक :- पालणे के चढावे, (स) दीक्षा कल्याणक (द) केवलज्ञान कल्याणक (इ) मोक्ष कल्याणक, इन पांच कल्याणक निमित्त मंदिर - उपाश्रय अथवा अन्य किसीभी स्थानमें प्रभुभक्ति निमित्त बोली या चढावा (उछामणी) हुई हो वह द्रव्य देवद्रव्य कहा जाता है । प्रभुपूजा, आरती, मंगलदिवा, सुपना, पालणा, अंजनशलाका, प्रतिष्ठा महोत्सव, उपधानमें नाण (नंदि) का नकरा, उपधान की माला, तीर्थमाला, इन्द्रमाला आदि सभी बोलियाँ देवद्रव्य में जाती है । इसलिए ये सभी देवद्रव्य ही गिना जाता है । इस देवद्रव्य का उपयोग जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार में, नये जिनमंदिर के निर्माणमें, आक्रमण के समय तीर्थकी रक्षा के लिए हो सकता है । नोट :- तीर्थरक्षा आदि के कार्यमें भी जैन व्यक्ति को इस द्रव्यसे देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १

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