Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Author(s): Kamalratnasuri
Publisher: Adhyatmik Prakashan Samstha

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Page 60
________________ जैन शासन की वृद्धि करने वाला और ज्ञान - दर्शनादि गुणो की प्रभावना करने वाला देव द्रव्य की वृद्धि शास्त्र के अनुसार करता है. वह जीव तीर्थंकर पद को भी प्राप्त करता है । और देवद्रव्यादि की रक्षा करने वाला संसार को कम करता है । जिन - पवयण वृद्धिकरं पभावगं नाणदंसण- गुणाणं । भक्खंतो जिणदव्वं अनंत संसारिओ होड़ (श्रा. दि.गा. १४२ ) । दोहंतो जिणदव्वं दोहिच्च दुग्गयं लहड़ ॥ जिनधन - मुविक्खमाणो दुल्लह बोहिं कुणइजीयो । जैन शासन की वृद्धि करने वाला और ज्ञान दर्शनादि गुणो की प्रभावना करने वाला यदि वह देवद्रव्य का भक्षण करता है तो वह अनंत संसारी यानी अनंत संसार को बढाता है और देवद्रव्य का ब्याज आदि द्वारा स्वयं लाभ उठाता है वह दुर्भाग्य और दारिद्रावस्था को प्राप्त होता है और देवद्रव्य का नाश होते हुए भी उपेक्षा करता है वह जीव दुर्लभबोधि को प्राप्त करता है । जिणवर आणारहियं वद्वारंता वि के वि जिणदव्वं । बुड्डंति भवसमुदं मूढा मोहेण अन्नाणी । (संबोधप्रकरण देवद्रव्यादि गाथा १०२) जिनेश्वर भगवान की आज्ञा के विरुद्ध से देवद्रव्य को बढाता है वह मोह से मूढ अज्ञानी संसार समुद्र में डुब जाता है । द्रव्यसप्ततिका टीका में कहा है, कि - कर्मादानादि - कृव्यापार वर्ज्य, सद् - व्यापारादि विधि - नैव तद् वृद्धिः कार्या' । १५ कर्मादानादि के व्यापार को छोडकर सद् व्यवहारादि की विधि से ही देवद्रव्य की वृद्धि करना चाहिए । भक्खेड़ जो उविक्खेड़ जिणदव्वं तु सावओ । पण्णाहीनो भवे जीवो लिप्पड़ पावकम्मुणा ॥ जो श्रावक देवदव्य का भक्षण करता है और देवद्रव्यादि का भक्षण देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५५

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