Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Author(s): Kamalratnasuri
Publisher: Adhyatmik Prakashan Samstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो? संपादक व संग्राहक - प. पू. आचार्य श्री कमलरत्न सूरीश्वरजी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीराय नमः श्री प्रेम रामचन्द्र सदगुरुभ्यो नमः देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? Koba. Gam 0 09 Phone :1079123276252.23278284.0 संपादक व संग्राहक - प. पू. उपाध्यायप्रवर श्री कमलरत्न विजयजी गणिवर्य --: प्राप्तिस्थान : आध्यात्मिक प्रकाशन संस्थान ८९/९१, जूनी हनुमान गली, धनजी मूलजी बिल्डींग, तृतीय तल, कमरा नं. ३७, मुंबई - ४००००२. फोन : २०१२०७१ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति - २००० मूल्य - रू.१०/वि. संवत २०५३ ० प्रवर्तनीरत्ना साध्वीजी श्रीखान्तिश्रीजी म.सा. की प्रशिष्या प. पू. परमविदूषी साध्वीजी श्री हर्षित प्रज्ञाश्रीजी म. सा. नी सुशिष्या प. पू. नूतन साध्वीजी श्री धृतिरमा श्रीजी म. सा. ( सांसारिक हमारी पुत्री शर्मिला) नी वि.सं. २०५२ जेठ सुदी ९, सोमवार, ता. २७-५-९६ ना रोज स्वीकारेल दीक्षा अने संसारी अवस्थामां करेल ३१ उपवासनी तपश्चर्यानी अनुमोदनार्थे शा. माणेकचंद अमीचंदजी सादरिया पिंडवाडावाला नवी पेठ मु. पो. लोणंद (महाराष्ट्र ) -संडाला जिला- सतारा, तालुका -‍ पिन-४१५५२१ भयंकर दुःखों की खान रात्रि भोजन एवं अभक्ष्य विचार की पुस्तक प्रभावना देने के लिए खूब उपयोगी है । मूल्य रुपये ६-०० वीरप्रभु की अंतिम देशना :- जिसमें पुण्यपाल राजा को आठ स्वप्न आये उसको फल का विस्तार से वर्णन किया गया है । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? मूल्य रुपये ३०-०० पक्की बाइन्डींग मूल्य रुपये १०-०० प्राप्तिस्थान :- आध्यात्मिक प्रकाशन संस्थान ८९/९१, जूनी हनुमान गली, धनजी मूलजी बिल्डींग, तृतीय तल, कमरा नं. ३७, मुंबई - ४००००२. फोन : २०१२०७१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द प्रायः देखा जाता है कि कई क्षेत्रो में प्रायः करके देवद्रव्यादि की जानकारी न होने से देवद्रव्यादि का दुरुपयोग किया जाता है । देवद्रव्यादि की रकम चढावा बोलकर अपने पास कम व्याज से रखते है और देवद्रव्यादि में से पूजारी को वेतन आदि देना, केशर चंदन धूपादि का स्वयं उपयोग करना । कई जगह तो एक ही कोथली रखी जाती है। भंडार, चावल, नारियल, पैसे स्नात्रपूजा का नारियल आदि पूजारी को देना जिससे अपने को पगार देना नहीं पडे या कम देना पडे । प्रभु की पूजा अपने को अपने लाभ के लिए करने की है न कि भगवान के लिए। पूजा अपने को करनी है परंतु हमारे पास समय नहीं होने से हमने पुजारी रखा है तो उसको वेतन आदि सुविधाएं.देवद्रव्य से नहीं दे सकते यदि देवद्रव्य से देते है तो दोष के भागी होते है। अपन ने लाभ लेने के बाद फिर वह द्रव्य स्वयं के उपयोग में कैसे आ सकता हैं ? अगर ऐसा होता है तो श्रावकों को देवद्रव्य के भक्षण का दोष लगता है । यह सब अज्ञानता है या फिर कंजूसी के कारण ऐसा होता है। श्रावकों को देवद्रव्यादि भक्षण का दोष न लगे इस उद्देश्य से यह हमारा प्रयास है । जो व्यक्ति यह पुस्तक ध्यान से पढेगा वह जरूर सही जानकारी प्राप्त करेगा, ऐसी आशा रखता हूं। यह पुस्तक द्रव्यसप्ततिका शास्त्रों आदि के आधार से लिखी है। शास्त्र विरुद्ध लिखा गया हो तो मिच्छामि दुक्कडं। वि. सं. २०५२ महावद १३ श्री जैन उपाश्रय, तीखी (राजस्थान) पू. गणिवर्यश्री कमलरत्नविजय म. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9: विषयानुक्रम सात क्षेत्रों आदि की व्याख्या तथा उनके द्रव्यकी व्यवस्था के बारेमें शास्त्रीय मार्गदर्शन : २. देव-द्रव्यादि की बोली बोलने वाले के कर्त्तव्य ३. ट्रस्टियों के कर्तव्य 8. ५. ७. ८. : एक कोथली से व्यवस्था दोषित हैं । श्रावक परिग्रह का विष के निवारण के लिये भगवान् की द्रव्य - पूजा करे ! ६. देवद्रव्य की सुरक्षा तथा सदुपयोग करना चाहिये न कि उसका दुरुपयोग और बेदरकारी स्वप्न द्रव्य देव द्रव्य ही है उसके अभिप्राय आ. श्री प्रेमसूरिजी म. देवद्रव्य को मंदिर - साधारण में जाने का आक्षेप मिथ्या है । ९. पू. मुनिराज श्री धर्मविजयजी म. ( आ.भ. श्री. वि. धर्मसूरिजी म. ) भी स्वप्नाजी की बोली देवद्रव्य स्वीकारते थे । उन्ही के पत्र द्वारा स्पष्टीकरण १०. वडोदरा जैन संघ के पारित प्रस्ताव से भी स्वप्नाजी की बोली देवद्रव्य है उस का पुष्टिकररण ११. शास्त्र के अनुसार स्वप्न बोली की आवक देवद्रव्य ही है / १२. आ. श्री वि. वल्लभसूरिजीभी ने पुरुषों की सभा मे साध्वीजी के व्याख्यान के विरोधी थे एवं स्वप्न द्रव्य को देव-द्रव्य ही माना है / १३. क्लीन एडवांस (Clean Advance) कदापि नहीं देना १४. देवद्रव्येन या वृद्धिर्गुरु - द्रव्येन यद्धनं तद्धनं कुलनाशाय मृतोपि नरकं व्रजेत् १५. देवद्रव्यादि सात क्षेत्रो की व्यवस्था का अधिकारी कौन ? (४) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. सात क्षेत्रों आदि की व्याख्या तथा उनके द्रव्यकी व्यवस्था के बारेमें शास्त्रीय मार्गदर्शन : सात क्षेत्र के नाम :- १. जिनप्रतिमा २ जिनमंदिर ३. जिनागम ४. साधु ५. साध्वी ६. श्रावक ७. श्राविका १. जिनप्रतिमा :- जिनप्रतिमा की पूजाके लिए किसीभी व्यक्तिने भक्ति से जो द्रव्य अर्पण किया हो वह प्रतिमाजी के अंगपूजा का देवद्रव्य कहा जाता है । इस द्रव्य का उपयोग नई प्रतिमाजी भराने में होता है । प्रभुजी की आंगी-चक्षु आदि बनाने के लिए कर सकते हैं । लेप करा सकते हैं । प्रतिमाजी के रक्षण के सभी खर्चमें उपयोग कर सकते हैं । इस खाते का द्रव्य अन्य किसीभी खाते में काम में नहीं ले सकते । सिर्फ प्रभु प्रतिमाजी के उपर्युक्त कार्य में खर्च कर सकते हैं । २. जिनमंदिर :- यह द्रव्य भी देवद्रव्य ही हैं। (अ) च्यवनकल्याणक :सुपने की बोली (चढावे) (ब) जन्मकल्याणक :- पालणे के चढावे, (स) दीक्षा कल्याणक (द) केवलज्ञान कल्याणक (इ) मोक्ष कल्याणक, इन पांच कल्याणक निमित्त मंदिर - उपाश्रय अथवा अन्य किसीभी स्थानमें प्रभुभक्ति निमित्त बोली या चढावा (उछामणी) हुई हो वह द्रव्य देवद्रव्य कहा जाता है । प्रभुपूजा, आरती, मंगलदिवा, सुपना, पालणा, अंजनशलाका, प्रतिष्ठा महोत्सव, उपधानमें नाण (नंदि) का नकरा, उपधान की माला, तीर्थमाला, इन्द्रमाला आदि सभी बोलियाँ देवद्रव्य में जाती है । इसलिए ये सभी देवद्रव्य ही गिना जाता है । इस देवद्रव्य का उपयोग जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार में, नये जिनमंदिर के निर्माणमें, आक्रमण के समय तीर्थकी रक्षा के लिए हो सकता है । नोट :- तीर्थरक्षा आदि के कार्यमें भी जैन व्यक्ति को इस द्रव्यसे देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहाय दे नहीं सकते । श्राद्धविधि में कहा है कि देवद्रव्य के चंदन से अपने ललाट आदि में तिलक भी नहीं कर सकते । देवद्रव्य के जल से हाथ पैर भी नहीं धो सकते। मंदिर के बाजे भी गुरु के आगे नहीं बजा सकते । श्री जिनेश्वर देव की भक्ति पूजा तो श्रावक को खुद के द्रव्यसे ही करनी चाहिए। किन्तु जहाँ श्राक्कों के घर न हो वहाँ देवद्रव्य से भी प्रभुपूजा करानी चाहिए । प्रतिमाजी अपूज (अपूज्य) तो रहने ही नहीं चाहिए । जहाँ श्रावक खर्च करने के लिए शक्तिशाली नहीं हो, वहाँ जैनेतर पूजारी को पगार, केशर, चंदन, अगरबत्ती आदि का खर्च देवद्रव्य में से कर सकते हैं । पर इतना तो पक्का ध्यानमें रखना कि श्रावक को पूजा के काम में तो यह द्रव्य इस्तेमाल न हो । पूजारी को निजी या साधारण खातेमें से पगार देना चाहिए । जैन वस्ति के अभाव में एवं प्रतिमाजी अपूज रहते हो तो प्रभुपूजा तथा मंदिर संबंधी सभी खर्च देवद्रव्य से हो सकता है। परंतु जैन पूजारी को तो देवद्रव्य में से पैसे दे ही नहीं सकते ! ऐसा न करने पर देनेवाले और लेनेवाले दोनों पाप के भागीदार बनते है। इस खाते का द्रव्य पहले खातेमें जिनप्रतिमा के काममें वापर सकते है ये दोनों द्रव्य देवद्रव्य संबंधी पवित्र द्रव्य होने से नीचे के पांचो खातों में इसका कभी भी उपयोग होता ही नहीं। ३. ज्ञानद्रव्य :- आगम - शास्त्रपूजन, प्रतिक्रमण के सूत्रों की बोली, कल्पसूत्र, बारसासूत्र अथवा अन्य कोई भी सूत्र बोहराना आदि के चढावे बोले हों या द्रव्य चढाया जाता हो वह सब ज्ञानद्रव्य गिना जाता है। ज्ञानद्रव्य का उपयोग :- इस द्रव्य में से साधु-साध्वीजी को पढाने के लिए जैनेतर पंडित को पगार दे सकते हैं। साधु-साज़ीजी को पढने । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्य साहित्य भी खरीद सकते हैं । जैन अखबार छपाने आदि में इस द्रव्य का उपयोग नहीं कर सकते । ____ ज्ञानभंडार के लिये धार्मिक पुस्तक ला सकते है। ये पैसे जैन पंडित को नहीं दे सकते । इन पैसों से जैन पुस्तक-विक्रेता के यहां से पुस्तक नहीं खरीद सकते । यदि जैन पंडितों को कुछ भी देना पडे अथवा तो जैन पुस्तक विक्रेता के यहां से पुस्तकादि खरीदना पडे तो यह राशि श्रावक अपने स्वयं के पास से देखें । ज्ञानभंडार के ग्रंथ पुस्तकादि का उपयोग श्रावक अथवा श्राविका करे तो उसका योग्य नकरा (चार्ज) देकर ही करें । ज्ञानद्रव्यसे धार्मिक प्राचीन या अर्वाचीन शास्त्र लिखने या छपाने के लिए तथा उसकी सुरक्षा के लिए जरूरी सामग्री लाने के लिए खर्च कर सकते हैं । इस द्रव्यसे ज्ञानभंडार के लिए ज्ञानमंदिरभी बंधवा सकते हैं। परंतु ज्ञानद्रव्यसे बने हुए ज्ञानमंदिरमें साधु-साध्वी या पौषार्थी श्रावकश्राविका नहीं रह सकते । संथारा आदि भी नहीं कर सकते । यह क्षेत्रभी (ज्ञानद्रव्य) देवद्रव्य तुल्य ही पवित्र होने से साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका खुद के उपयोग में यह द्रव्य उपयोग नहीं कर सकते । व्यावहारिक शिक्षा में इस द्रव्य का बिल्कुल उपयोग हो नहीं सकता। पाठशालामें अभ्यास कर रहें बालक बालिकाओं के लिए धार्मिक पुस्तकें भी इस द्रव्यसे ला नहीं सकते। धार्मिक शिक्षण खाता (पाठशाला) :- यह खाता साधर्मिक श्रावक-श्राविका की ज्ञानभक्ति का साधारण खाता है । यदि श्रावकश्राविकाने अपना खुद का द्रव्य खुद के धार्मिक अभ्यास के लिए अर्पण किया हो तो उस रकमसे श्रावक पंडित रख सकते हैं । जिसका लाभ साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका चारों वर्ग ले सकते हैं । धार्मिक पुस्तक तथा इनाम आदि भी इसमें से दे सकते हैं। परंतु यह पैसे व्यावहारिक देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षणमें किसीभी रूप में इग्नमाल कर नहीं सकते यह बात खास ध्यानमें रखनी चाहिए। ४-५. साधु-साध्वी क्षेत्र :- संयमधारी साधु-साध्वी महाराज की भक्ति - वैयावच्च के लिए जो रकम दानवीरों की ओर से मिली हो तो उसका उपयोग संयमधारी साधु-सायीजी महाराज की संयम- शुश्रूषा तथा विहार आदि की अनुकूलता के लिए खर्च कर सकते है । नूतन दीक्षित बनने वाले मुमुक्षु को उपकरण अर्पण करने की बोली में से नवकारवाली (माला), पुस्तक तथा सापडे की बोली की रकम ज्ञानखातेमें जाती हैं। बाकी उपकरणों की बोली की रकम साधु-साध्वीजी महाराज के वैयावच्च खाते में जाती है । इस क्षेत्र का द्रव्य जरूरत पड़ने पर ऊपर के तीनों क्षेत्रमें श्री संघकी आज्ञानुसार खर्च सकते हैं। परंतु नीचे के श्रावक-श्राविका क्षेत्रमें इस द्रव्य का उपयोग हो नहीं सकता। सर्वसामायिक उच्चरने के बाद नूतन-साधु का नृतन नाम जाहिर करने की बोली तो देवद्रव्य में जाती है। ... ६-७. श्रावक श्राविका क्षेत्र :- भक्तिभावसे इस क्षेत्रमें समर्पण किया.जो द्रव्य वह श्रावक-श्राविकाओं को धर्ममें स्थिर करने के लिए, आपत्ति के समयमें सहायता करने के लिए अथवा हर एक प्रकार की भक्ति के कार्य में इस द्रव्य का उपयोग हो सकता हैं। क्योंकि यह द्रव्य ४थे-पांच-वें गुणस्थानक में रहे हुए आत्माओं की भक्ति के लिए है। यह पवित्र साधर्मिक द्रव्य है । इसीलिए चेरिटी, सामान्य जनता, याचक, दीनदुःखी अथवा तो अन्य किसीभी मानव के लिए तथा दया-अनुकंपा आदि तथा व्यावहारिक कार्योंमें यह द्रव्य बिल्कुल इस्तेमाल नहीं कर सकते । इस द्रव्य का जरूरत पड़ने पर ऊपर के पांचो क्षेत्रमें श्री संघ की आज्ञानुसार खर्च सकते हैं । परंतु नीचे के अनुकंपा या जीवदया में देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्तेमाल कर नहीं सकते। ८. गुरुद्रव्य :- पंचमहाव्रतधारी, संयमी, त्यागी महापुरुषों के आगे गहुंली की हो या गुरु की द्रव्यादि से पूजा की एवं गुरु-पूजा की बोली की रकम 'जीर्णोद्धार' या 'नवीन मंदिर बनाने' में खर्च करनी चाहिए। . ऐसा 'द्रव्य सप्ततिका' १३वीं गाथा की स्वोपज्ञ टीका में स्पष्ट रूपसे बताया हैं । जो इस प्रकार है :- “स्वर्णादिकं तु गुरुद्रव्यं जीर्णोद्धारे नव्यचैत्यकरणादौ च व्यापार्यम्” गुरु-प्रवेश महोत्सवमें रथ, हाथी, घोडा आदि की बोली या नकरा तथा गुरुमहाराज को कामली (कंबल) आदि बोहराने की बोली भी गुरुद्रव्य कहलाती है। यह रकम जीर्णोद्धारादि देवद्रव्यमें ही इस्तेमाल कर सकते हैं। गुरु – वैयावच्चमें इस्तेमाल कर नहीं सकते । जीर्णोद्धारादि देवद्रव्य खातेमें ये पैसे जाते हैं । गुरुनिमित्त सभी बोलियां देवद्रव्य है। ९. मंदिर साधारण :- श्री जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति तथा श्री जिनमंदिर की सार संभाल आदि के लिए दिया गया द्रव्य । इस द्रव्य से पुजारी को तथा मंदिर के नोकरो को पगार दे सकते हैं उसी प्रकार परमात्मा की भक्ति के लिए लगने वाले तमाम द्रव्य ला सकते हैं। श्री जिनमूर्ति तथा श्री जिनमंदिर के कार्य सिवाय अन्य किसीभी कार्यमें इस द्रव्य का उपयोग कर नहीं सकते। १०. साधारण द्रव्य :- यह साधारण द्रव्य धार्मिक द्रव्य है । सात क्षेत्रमें से कोई भी क्षेत्र पीडाग्रस्त (निर्बल) हो, जरूरत हो तो आवश्यकतानुसार उस क्षेत्रमें इस द्रव्य का उपयोग कर सकते है । परंतु व्यवस्थापक अथवा अन्य कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत कार्यमें यह द्रव्य इस्तेमाल नहीं कर सकता। दीनदुःखी अथवा तो किसीभी जन साधारण सर्व सामान्य लोकोपयोगी व्यावहारिक अथवा जैनतर धार्मिक कार्यमें यह देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य खर्च नहीं सकते । यह द्रव्य चेरिटी के उपयोगमें अथवा व्यावहारिक शिक्षण खातेमें अथवा अन्य किसी सांसारिक कार्योंमें खर्च नहीं सकते । इस साधारण खाते का उपयोग प्रभावना व साहमिवात्सल्यमें नहीं कर सकते। भक्ति के पात्र सात क्षेत्र में ही साधारण द्रव्य का उपयोग हो सकता है। अनुकंपा एवं जीवदया में इसको उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि यह भक्तिक्षेत्र है, अनुकंपा-जीवदया दया के पात्र है। ___ साधारण द्रव्य भी पीडाग्रस्त श्रावक को संघ के द्वारा दिया हुआ हो तो ही अपने उपयोग में ले सकता है वर्ना नहीं। . ११. आयंबिलतप :- इस खाते की रकम आयंबिल करने वाले तपस्वियों की भक्ति या उनकी व्यवस्थामें खर्च सकते हैं । इस खाते का द्रव्य यदि अधिक हो तो अन्य गाँवो में आयंबिल तप करनेवालों की भक्तिमें खर्च सकते है । संक्षिप्त में यह द्रव्य आयंबिलतप और तपस्वियों की भक्ति के सिवाय अन्य किसीभी कार्य में खर्च नहीं सकते। यह खाता भी केवल धार्मिक खाता है । इसी कारण आयंबिल भवन का उपयोग धार्मिक प्रवृत्ति के सिवाय किसी भी अन्य कार्य में नहीं हो सकता। १२. धारणा अत्तरवायणा - पारणा - स्वामिवात्सल्य नवकारशी खाता/पौषधवालों को एकासन प्रभावना आदि खाता :- ऊपर के नामवाले अथवा तो अन्य तप, जप, तीर्थयात्रा आदि धार्मिक कार्य करनेवाले साधर्मिक की भक्ति करने के लिए जो द्रव्य होता है वह द्रव्य तो द्रव्यदाता की भावनानुसार उस उस खातों में उपयोग करना चाहिए । अधिक हो तो यह द्रव्य सातों क्षेत्रमें जहाँ जहाँ जरूर हो वहाँ वहाँ खर्च सकते है परंतु सार्वजनिक किसी भी कार्य में यह द्रव्य नहीं खर्च सकते । यह द्रव्य केवल धार्मिक क्षेत्रका ही द्रव्य है। १३. निश्राकृत द्रव्य :- दानवीरों ने विशिष्ट प्रकार के धार्मिक कार्य या देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए दिया हुआ जो द्रव्य हो उसी कार्य में उसका उपयोग होता हैं । अधिक हो तो ऊपर के किसी भी खाते में शास्त्रीय मर्यादानुसार खर्च सकते हैं । १४. कालकृत द्रव्य :- किसी खास समय पर पौषदशमी, अक्षयतृतीया आदि पर्यो के निश्चित दिनों में खर्च करने के लिए दाता द्वारा जो द्रव्य दिया गया हो वह रकम उस दिन उसी कार्यमें इस्तेमाल की जानी चाहिए । १५. उपाश्रय :- अर्थात् धार्मिक क्रिया करने का जो स्थान यह स्थान साधु-साध्वी श्रावक श्राविकाओं की धार्मिक आराधना के लिए पवित्र धर्मस्थान हैं । उसका उपयोग धार्मिक कार्य के लिए ही करना चाहिए । परंतु व्यावहारिक स्कूल अथवा राष्ट्रीय प्रवृत्ति के समारोह आदि कार्यों में इस मकान का उपयोग हो नहीं सकता । सरकार के या अन्य किसी भी सांसारिक कार्य के लिए किराये से भी दे नहीं सकते । इस धर्मस्थान का कोई कब्जा भी ले नहीं सकता । क्योंकि यह जैन शासन के अबाधित स्थान हैं। इसका वास्तविक नाम आराधना भवन, पौषधशाला है । परंतु साधु-साध्वी यहाँ ठहरते है अतः उपाश्रय भी कहते है । १६. अनुकंपा :- इस द्रव्य का उपयोग सात क्षेत्र में नहीं कर सकते क्योंकि वे भक्ति के पात्र है। पांच प्रकार के जिनेश्वर प्रणीत दानोंमें अनुकंपा - दानका भी समावेश होता है । कोई भी दीनदुःखी निःसहाय, वृद्ध अनाथ आत्माओं को अन्नपान, वस्त्र, औषधि, हितोपदेश आदि देकर द्रव्य तथा भाव दुःख दूर करने का प्रयत्न इस द्रव्य द्वारा हो सकता हैं । यह सामान्य कोटि का द्रव्य है, इसलिए ऊपरोक्त किसी भी धार्मिक क्षेत्रमें इसका उपयोग नहीं होता । परंतु जीवदया में यह द्रव्य खर्चना हो तो खर्च सकते हैं । अनुकंपा मनुष्यों की होती है, जीवदया पशु-पक्षीओं देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? *७ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की होती है । यह अनुकंपा-जीवदया में फर्क है । जरूर पडने पर अनुकंपा की रकम जीवदया में ले सकते है परंतु जीवदया की रकम अनुकंपा में नहीं ले सकते। १७. जीवदया :- इस खाते का द्रव्य प्रत्येक तिर्यंच, पशुपक्षीओं की दव्य तथा भावदया के कार्य में अन्नपान, औषधि आदि से प्रत्येक साथनों द्वारा उनका दुःख दूर करने के लिए मनुष्य को छोडकर प्राणीमात्र की दया के कार्य में खर्च सकते हैं । यह द्रव्य सामान्य कोटि का होनेसे अन्य किसीभी खाते में खर्च सकते नहीं । जीवदया की रकम जीवदयामें ही खर्च कर सकते हैं। . १८. शुभखाता :- किसीभी अच्छे कार्य के लिए वापरने के शुभ उद्देश्य से दिया गया या एकत्रित किया द्रव्य । सातक्षेत्र, अनुकंपा जीवदया सहित किसीभी शुभकार्य में जरूरत अनुसार तथा धर्मशास्त्रानुसार उपयोग कर सकते हैं। १९. व्याज आदि की आय :- जिस खाते के रकम की ब्याज की आय हो अथवा भेंट आदि द्वारा जो वृद्धि हो वह रकम उन उन खातों में खर्चनी चाहिए । जरूरत से ज्यादा द्रव्य हो तो अन्य किसीभी गाँव में उन उन खातेमें वह द्रव्य देवें । यह जैनशासन की मर्यादा हैं। देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो? * ८ D Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२. देव--द्रव्यादि की बोली बोलने) वाले के कर्त्तव्य :प्रत्येक महानुभावां का कर्तव्य है कि महोत्सवादि के प्रसंग में प्रथम पूजा वगैरह करने की तथा पर्युषण में स्वप्नाजी झुलाने इत्यादि की जो बोली बोली जाती है। उसमें जो महानुभाव चढावा लेते है और प्रथम पूजादि का लाभ प्राप्त करते है उनको प्रथम पूजादि का लाभ लेने के पहले ही या पश्चात् तुरंत ही बोली के रूपये संघ की पेढी में भरपाई कराना चाहिए। जिससे देव-द्रव्यादि द्रव्य के भक्षण का पाप नहीं लगे । तुरंत ही पैसे संघ की पेढी में भर-पाई कराने से वे पैसे उचित रीति से विधिपूर्वक रखने से व्याज चालु हो जाता है कई साल तक चढावे के पैसे भरपाई न करनेवाले जब पैसे चुकाते है तब ब्याज देते ही नहीं इस कारण उनको देवद्रव्यादि द्रव्य के भक्षण का बडा भयंकर दोष लगता है। व्यवहार में भी कोई आदमी किसी को व्याज से रुपये उधार देता है तो उधार लेने वाला एक सप्ताह में ही वापिस वे रूपये लौटा देता है तब उधार देने वाला एक महिना का पूरा ब्याज ले लेता है न केवल सप्ताह का, तो फिर वह बोली आदि के पैसे तुरंत न चुकावे, कई महिनों या वर्षों के बाद चुकावे वे भी बिना ब्याज के यह कितना अनुचित है ? इसीलिए शास्त्र में कहा गया है कि चढावादि के पैसे तुरंत ही चुका दो, तो आपको बोली का सच्चा लाभ मिलेगा । तुरंत पैसे दे देने में एक लाभ यह भी है कि बोली बोलकर लहावा लेने के वक्त में अमाप उत्साह होने के वजह से उसी समय में ही पैसे दे देने में अपूर्व कोटिका पुण्यबन्ध होता है । लेकिन उसी समय पैसे न दिये जाए, पैसे देने में विलम्ब किया जावे तो पीछे पैसे देने में उत्साह मंद पड जाता है और उत्साह का भंग भी हो जाता है। बिना उत्साह से पैसे भरपाई करे तो पुण्यबन्ध में भी देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ९ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारी मन्दता आ जाती है । इसलिए हरेक पुण्यवान श्रावकों का शास्त्रानुसार कर्तव्य है कि बोली बोलते ही पैसे भरपाई करा देना चाहिए जिससे सच्चे पुण्यबन्ध के भागीदार बन सके । अपने यहां पुण्यवान उदारताशील ऐसे श्रावक हो गये हैं कि चढावे बोलकर तुरन्त ही पैसे भरपाई करवाते थे । महामंत्रीश्वर पंथडशानं गिरनार तीर्थ के दिगम्बर के साथ विवाद में इन्द्रमाला को पहिनकर गिरनार तीर्थ जैन श्वेताम्बर की मालिकी का करने के लिए सोने का सद्व्यय करके चढावा लिया था । वह ५६ धडी = करीब २६३ किलो सोना भरपाई करने के लिए ऊंटडिओं पर अपने घर से सोना लाने के लिए अपने आदमीओ को भेजे . थे क्योंकि सोना न आवे वहाँ तक अन्नपाणी न लेना यह निर्णय था । ५६ धडी सोना लाने में दो दिन लगे, दो दिन के उपवास हुए तीसरे दिन पेढी में ५६ ( घडी = करीब २६३ किलो) सोना चुकाकर पारणा किया । यह बात खास याद रखने जैसी है और याद रखकर जीवनमें अमली बनाने जैसी है । जो बोली बोलो वह तुरन्त दे दी। हो सके तो बोली बोलने वालों को पैसे भी जेब में लेकर आना चाहिए । उगाही करने के लिए मुनीम वगैरह संचालन करने वालों को रखने पडे यह रीत योग्य नहीं है । इसमें शाहुकारी नहीं रहती है । बोली के पैसे तुरन्त देना यह पहली शाहुकारी है, विलंब करते हुए भी यदि ब्याज सहित देवे तो दूसरी शाहुकारी है । ब्याज भी बाजार भाव का होना चाहिए । स्वयं लेवे ड्रेढ दो टका और देवे बारह आना व्याज, तो बारह आना खा जाने का दोष लगता है । चढावे की रकम तुरन्त न देने में कभी अकल्पित बनाव भी बन जाते है । श्रीमंताई पुण्य के आधीन है पुण्य खतम हो जावे और पाप का उदय जागृत हो जावे तो बडा श्रीमंत भी एकदम दरिद्री हो जाता है सब लक्ष्मी चली भी जाती है, या चुकाने के पहिले ही मृत्यु हो जावे तो ऐसी अवस्था में चढ़ावे के रूपये जमा न करा सके तो उसको अन्त देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १० Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कर्जदार बनकर भवानर में जाना पडता है। धर्मस्थानों का देवा खडा रखना और मुनीम आदि को धक्का खिलाते रहना यह रीत लाभदायी तथा शोभास्पद नहीं है । अतः आत्मार्थी पुरुष को आत्मकल्याण के लिए जो बोली बोली हो वह तुरन्त ही दे देना चाहिए है। जैन शासन में सर्वश्रेष्ट कोटि का द्रव्य देवद्रव्य को माना गया है । उसको जानते या अनजानते में अपने उपयोग में लेना, खा जाना, नुकसान पहुंचाना तथा कोई खा जाता होवे, चोर लेता होवे, हानि पहुंचाता होवे उसकी उपेक्षा करना यह बडा पाप हैं। देवद्रव्य के भक्षणादि का ऐसा घोर पाप है कि देवद्रव्यादि का भक्षणादि करने वाले को इस जन्म में भी दरिद्रतादि की भयंकर यातनाएं भोगनी पडती है और जन्मान्तर में भी (दुर्गति में) अनन्त अनन्त बार चक्कर लगाना पडता है और अनन्तानन्त असह्य दुःख भोगने पड़ते हैं एक मन्दिर के दीपक से घर का काम करनेवाली देवसेन श्रेष्टि की माँ की क्या दशा हुई ? उसकी जानकारी के लिए उपदेश प्रासाद, श्राद्धविधि आदि ग्रन्थों में एक दृष्टान्त आता है कि इन्द्रपुर नगर में देवसेन नाम के एक धनाढ्य सेट रहते थे । हररोज उसके घर एक ऊंटडी आती थी। उसका मालिक मार-मार कर अपने घर ले जाता था लेकिन वह ऊंटडी वापिस देवसेन सेट के घर पर आ जाती । यह देखकर देवसेन श्रेष्टि को बडा आश्चर्य हुआ। एक बार ज्ञानी गुरु भगवन्त पधारे तो देवसेन श्रेष्टि ने उनको पूछा कि भगवन् ! यह ऊंटडी बार बार मेरे घर पर क्यों आ जाती है ? तब ज्ञानी गुरु भगवन्त ने कहा कि यह ऊंटडी गत जन्म में तेरी माँ थी । वह हरहमेश जिनेश्वर भगवन्त के आगे दीपक करती थी और उसी दीपक से अपने घर का काम करती थी। जिनेश्वर भगवन्त के आगे किया हुआ दीपक देवद्रव्य हो जाता है अतः उससे घर का काम करने से देवद्रव्य भक्षण के पाप का कारण बन जाता है । तेरी मां जिनेश्वर देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ११ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव के आगे रखे दीपक से अपने घर का काम करती थी और उसी तरह धूप के लिए धूपदानी में जलते अग्नि से चूल्हा भी जलाती थी । इन दोनो पाप से तेरी मां ऊंटडी रूप से पैदा हुई है । तेरे को और तेरे घर को देखकर उसको शान्ति होती है । अब तू उसको तेरे माँ के नाम से बुला और दीपक की तथा धूप की बात कर- जिससे उसको जाति - स्मरण ज्ञान और प्रतिबोध होगा ! देवसेन सेट ने गुरु भगवन्त के कहे मुताबिक बात की। अपना पूर्वभव सुनकर ऊंटडी को जातिस्मरण ज्ञान हुआ । गत जन्म में किये देवद्रव्य- भक्षण के पाप का भारी पश्चात्ताप हुआ । अरे ! इस पाप से उत्तम कोटि का मानव जन्म गँवा कर पशु में जन्म लिया अब मेरा क्या होगा ! मैं धर्म कैसे कर सकूंगी । इस चिंतन से उसने धर्म पाया और गुरु के पास सचित्तादि के त्याग के नियम लिए । धार्मिक जीवन जीने लगी । अन्त में शुभध्यान में मरकर देवलोक में गई । इसलिए अपने पूर्वाचार्य कहते है कि मन्दिर की कोई भी चीज या उपकरण का अपने स्वयं के काम में उपयोग नहीं करना चाहिए । जिससे देवद्रव्य के भक्षण का पाप न लगे । जिस तरह मन्दिर की कोई भी चीज को अपने कार्य में उपयोग करना पाप है । उसी तरह मन्दिर की कोई भी अच्छी चीज अदल बदल करना भी भारी पाप-बन्ध का कारण है और इस जन्म में भी दरिद्रतादि कई प्रकार से दुःखदायी होना पड़ता है । इस बात को जानने के लिए शुभंकर श्रेष्टि की कथा शास्त्रों में लिखी है। वह इस तरह है । कांचनपुर नगर में शुभंकर नाम के सेट रहते थे । संस्कारी और सरल स्वभावी शुभंकर सेट को प्रतिदिन जिनपूजा और गुरु वंदन करने का नियम था । एक दिन सुबह में कोई जिनभक्त देव ने दिव्य चावल से प्रभुभक्ति की । वह दिव्य चावल की तीन ढगलियां मन्दिर के रंगमंडप में देखी। ये चावल देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलौकिक थे तथा सुगन्ध से तन मन का तरबतर कर दे वैसे थे । शुभंकर सेट को ये चावल देखकर दाढ में पानी आ गया और सोचा कि यदि इन चावल का भोजन किया हो तो उसका स्वाद कई दिनों तक याद रहे । मन्दिर में जिनेश्वर देव की भक्ति में रख्ने चावल तो ऐसे लिए नहीं जाते तो क्या करना अब । अन्त में उसने रास्ता निकाला, कि अपने घः से चावल लाकर दिव्य चावल के प्रमाण में रखकर वे दिव्य चादल ले लिये। इस तरह मन्दिर के चावल का अदला-बदला किया ।दिव्य चा-ल घर ले जाकर उसकी खीर बनाई । खीर की खूशबु चारों ओर फैल गई। उस समय मासोपवासी तपस्वी मुनि उसके घर में पधारे । सेट ने मुनि को खीर वहोराई । मुनि महात्मा खीर वहोर कर उपाश्रय की तरफ जा रहे थे । रास्ते में दिव्य खीर की खूशबु पातरे को अच्छी तरह से ढंकने पर भी मुनि महात्मा के नाक तक पहुंच गई। मुनि ने न करने जैसा विचार किया । सेट मेरे से भी बहोत भाग्यवान है कि वह ऐसा स्वादिष्ट और सुगन्धित भोजन प्रतिदिन करता है । मैं तो साधु रहा, मुझे ऐसा भोजन कहाँ से मिले, लेकिन आज मेरे भाग्य के द्वार खुल गये है कि आज तो स्वादिष्ट और सुगन्धित खीर खाने को मिलेगी ।ज्यों ज्यों उपाश्रय तरफ आने के लिए कदम उटाते आगे बढ़ रहे है,त्यो त्यों इन मुनि के मन की विचारधारा भी दान की तरफ आगे ही बढ़ती गई। अन्त में तो निर्णय कर लिया कि यह खीर गुरु को बताई तो वे सब खा जायेंगे इसलिए गुरुजी को खीर बताये बिना उनको खबर न पड़े इस तरह एकान्त में बैटकर खा लूंगा । उपाश्रय में जाकर गुरु को खबर न पड़े इस तरह छिप कर खीर अकेले ने खा ली । खाते खाते भी खीर के स्वाद की और शुभंकर सेट के भाग्य की खूब-खूब मनोमन प्रशंसा करने लगे। अ हा हा क्या मधुर-स्वाद ! देवों को भी ऐसी खीर खाने को मिलना मुश्किल है। मैन फिजुल तप करके देहदमन किया। मुनि खीर खा कर शाम पा देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो? * १३D Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को सो गये । प्रतिक्रमण भी किया नहीं । गुरु ने प्रेरणा की फिर भी वह सोते ही रहा । सुबह भी प्रतिक्रमण नहीं किया गुरु महाराज ने विचार किया। यह क्या हुआ ? यह मुनि तो महान् आराधक था। साधु-जीवन की समस्त क्रियाएं प्रतिदिन अप्रमत्त भाव से करता था । मुझे लगता है कि इसने अवश्यमेव अशुद्ध आहार का भोजन किया है। यह विचार . गुरु महाराज कर रहे थे उस वक्त सुबह में शुभंकर सेट गुरु भगवन को वंदन करने आये । सेट ने देखा कि मुनि महात्मा अभी तक सोये हुए है गुरु को इसका कारण पूछा । गुरु ने कहा यह मुनि गोचरी करके सोये सो सोये । उटाने पर भी उटे नहीं । मुझे लगता है कि कल इसने कोई अशुद्ध आहार का भोजन किया होगा। यह सुनकर सेटने कहा कि कल तो मैने गोचरी वहोराई थी । गुरु ने पूछा - शुभंकर सेट ! आपको तो मालूम होगा ही कि वहोराया आहार शुद्ध और मुनि के खप में आवे ऐसा ही था ? शुभंकर सेटने सरल भाव से बिना.छुपाये मन्दिर में से बदलकर लाए चावल से बनाई खीर की बात कर दी । गुरु महाराज ने कहा – शुभंकर ! यह तूने टीक नहीं किया तूने देवद्रव्य भक्षण का महान पाप किया है। सेटने कहा । हां गुरुजी उसके फल रुप मरे को कल बहुतं धन की हानि हुई । गुरुने कहा - तेरे को तो बाह्य धन की हानि हुई लेकिन इस मुनि को तो अभ्यंतर संयम धन की हानि हुई है । हे शुभंकर ! इस पाप से बचना हो तो तेरे पास जो धन है उसका व्यय करके एक जिनमन्दिर बना देना चाहिये । सेटने पापसे बचने के लिए एक मन्दिर अपने सारे धन से बनवाया । रेचक जुलाब की औषधि देकर साधु के पेट की शुद्धि की तथा पातरे को गोबर और राख्न के लेप लगाकर तीन दिन धूप में रखकर और पण देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके बाद शुद्ध जल से साफ कर शुद्धि की । मुनि महात्मा ने भी अपने किये अतिचार पाप का प्रायश्चित्त कर लिया। इस दृष्टान्त से यह बात सिद्ध होती है कि देवद्रव्य का भक्षण हलाहल विष है । अनजान में भी वह हो जाये तो इस जन्म में भी नुकसान किये बिना नहीं रहता तो जानबुझ कर खाने वाले की तो क्या दशा होवे ? इससे सब श्रावको को यही सिखने का है कि अधिक द्रव्य देकर भी देवद्रव्य की चीज अपने उपयोग में नहीं लेनी और परस्पर किसी को देनी भी नहीं चाहिए । देवद्रव्य के भक्षणादि के बारे में शास्त्रों में बहुत से दृष्टांत दिये गये है उसको पढकर/सुनकर देवद्रव्य के भक्षणादि से बचने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३. ट्रस्टियों के कर्तव्य (१) प्रत्येक ट्रस्टी को आपमति, बहुमति और सर्वानुमति के आग्रही नहीं बनना चाहिए किन्तु शास्त्रमति के ही आग्रही रहना जरूरी है। मन्दिरादि के तथा वहीवट (संचालन) आदि के कार्य शास्त्र के आधार से श्री अरिहन्त परमात्मा की आज्ञा के अनुसार करने का ध्यान रखना चाहिये । (२) अपने बोले हुए चढावे की या स्वयं ने चंदा आदि में लिखाई गई देवद्रव्य आदि की रकम शीघ्रतया संघ की पेढी में भरपाई करानी चाहिए और लोगों में भी जो देवद्रव्यादि की रकम बकाया होवे तो उसकी स्वयं या मुनीम के द्वारा उगाही करके इकट्ठी करनी चाहिये । .. ___(३) हमेशा मन्दिर में देवाधिदेव अरिहन्त परमात्मा के दर्शन पूजन करने चाहिए और मन्दिर की सार-संभाल रखकर आशातनाओं को दूर करने, करवाने का प्रयास करना चाहिए । इसी तरह उपाश्रयादि धर्मस्थानोंमें भी रोज जाना चाहिए और उसकी साफ-सफाई वगैरह करवाने का ध्यान रखना चाहिए । उपाश्रय में गुरुमहाराज विराजमान होवे तो प्रतिदिन उनको वंदन करने जाना चाहिए तथा उनका प्रवचन सुनना चाहिये। (४) उनको स्वयं जिस रीत से संचालन करते हो उसकी जानकारी संघ को देनी चाहिये उस में जो भुलचूक बतावे उसका सुधारा करना चाहिये । संचालन करने की विधि को बताने वाले शास्त्रों का श्रवण अवसर पर सुनने चाहिये। प्रत्येक ट्रस्टी का कर्तव्य है कि ट्रस्टी बनने पर मन्दिर में दर्शन पूजन करने वालों की संख्या में वृद्धि होवे तथा उपाश्रय में प्रतिक्रमण स देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो? * १६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिकादि की आराधना करनेवालों की संख्या बढ़े और गुरु महाराज के व्याख्यानादि में ज्यादा लोग उपस्थित होवे ऐसे प्रयत्न करते रहना चाहिये। जैन शासन की प्रभावना के महोत्सवादि कार्यो में प्रत्येक ट्रस्टी को सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिये । आजकल कई जगह पर ट्रस्टी बनने के बाद निष्क्रिय बन जाते है महोत्सवादि शासन प्रभावना के प्रसंगो की बात तो दूर रखो लेकिन आवश्यक कार्यों के लिये ट्रस्टियों की बुलाई गई मीटिंग में भी उपस्थिति नहीं रहती । शासन के किसी कार्य में भी भाग नहीं लेते । यह अत्यंत अनुचित है। संघ के कार्यों में रुचि से भाग लेने की वृत्ति न होवे तो ऐसे व्यक्ति को ट्रस्टी पद पर आरूढ ही नहीं होना चाहिये । प्रत्येक ट्रस्टी को प्रत्येक शासन के कार्य में जिनागम-शास्त्र का अनुसरण करना चाहिए । संघ में विवाद अपने स्वार्थीय कारणों के वश होकर करे ऐसा नहीं होना चाहिये । वास्तव में आज के समय में देव द्रव्यादि द्रव्य की वृद्धि करके बढाए जाना और संग्रह करना ये किसी भी तरह से उचित नहीं है, क्योंकि वर्तमान की सरकार और कायदे ऐसे विचित्र कोटी के है, कि मिलकत कब हाथ में से चली जावे यह कुछ भी नहीं कह सकते । अतः जहां जहां मंदिरों के जीर्णोद्धार इत्यादि जरुरत लगे वहां वहां देव द्रव्य का सद्व्यय कर लेना चाहिए। अपने गांव में मंदिर के अन्दर उपयोग करने की आवश्यकता लगे तो उसमें देव द्रव्य का पैसा लगा देना जरूरी है । अपने गांव के मंदिर में आवश्यकता न होवे तो अन्य गांवों के मंदिर तथा तीर्थ स्थलों के मंदिर के जीर्णोद्धार या नूतन निर्माण में देने की उदारता बतानी चाहिए । लेकिन आज तो ज्यादातर ट्रस्टी वर्ग इतनी क्षुद्रवृत्ति के है, कि वे न तो देव द्रव्य का उपयोग अपने गांव के मंदिर में जरूरी काम करवाते देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं और न अन्य गांवों के मंदिर या तीर्थ स्थलों में जीर्णोद्धारादि के कार्य में उपयोग करते हैं। केवल देव द्रव्य का संग्रह कर उसके उपर अपना अधिकार जमाए रखते हैं इस तरह करने से ट्रस्टी वर्ग घोर पाप का बन्ध करते हैं, ज्ञानी भगवन्त कहते हैं कि उनके जनम जनम बिगड़ जाएंगे । नरकादि दुर्गति में असह्य यातनाए भोगनी पड़ेगी । धन सम्पति रगड़े झगड़े का मूल है। ट्रस्ट में धन सम्पति ज्यादा प्रमाण में जमा हो जाती हैं, तब ट्रस्टी वर्ग परस्पर झगड़ते हैं अथवा संग्रहित देव द्रव्य को मंदिरादि में न लगाकर उपाश्रय, धर्मशाला, भोजन शाला, सस्ते भाड़े की चाली, बिल्डींग बनवाने आदि कार्य में लगा देते हैं जो अत्यंत ही शास्त्र विरुद्ध ' है और गाढं पाप बन्ध का कारण है । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. एक कोथली से व्यवस्था दोषित है। देवद्रव्यादि धर्मद्रव्य की व्यवस्था एक कोथली से करना दोषपात्र होने से अत्यन्त अनुचित है। अमुक गाँवो में एक कोथली की व्यवस्था है देवद्रव्य के रूपये आवे तो उसी कोथली में डाले, ज्ञानद्रव्य के रूपये आये तो उसी कोथली में तथा साधारण के रूपये आये तो भी उसी कोथली में डालते है और जब मन्दिरादि के कोई भी कार्य में खर्च करने होते है तब उसी कोथली में से खर्च करते है उस वक्त आगम ग्रन्थ लिखने का या छपवाने का कार्य अथवा साध साध्वीजी म.सा. को पढ़ाने वाले पंडितजी को पगार चुकाने का प्रसंग उपस्थित हो तब उस कोथली में से रुपये लेकर खर्च करते है अथवा साधु आदि के वैयावच्चादि के प्रसंग में भी उसमें से ही खर्च करते है। वास्तव में देवद्रव्य की, ज्ञानद्रव्य की, तथा साधारण द्रव्य वगैरह सबकी काथली अलग अलग रखनी चाहिए। देवद्रव्य आदि के उपभोग से बचने के लिये बहुत ही जरूरी है। मंदिर का कार्य आवे तो देवद्रव्य की कोथली में से धन व्यय करना चाहिए । जान का कार्य आवे तो ज्ञानद्रव्य की कोथली में से तथा साधारण के कार्य उपस्थित हो तो साधारण की कोथली से धन व्यय करना चाहिए। लेकिन ज़ान, साधारण . खाते की रकम न होवे तो देवद्रव्य की कोथली में से लेकर ज्ञानादि के कार्य में देवद्रव्य का व्यय नहीं कर सकते । यद्यपि मंदिर का कोई कार्य आवे तो जानद्रव्य का उपयोग हो सकता है क्योंकि ऊपर के खाते के कार्य में नीचे के खाते की सम्पत्ति का व्यय करने में शास्त्र का कोई बाध नहीं है अतः देवद्रव्यादि सब द्रव्य की एक कोथली रखने से देवद्रव्य का दुरुपयोग होता है जो पाप का कारणभूत है। इस हेतु सब द्रव्य की एक कोथली रखना और सर्व कार्यों में उसमें से द्रव्य खर्चना तद्दन गलत हैं। एक देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १९ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. श्रावक परिग्रह का विष के निवारण के लिये भगवान् की द्रव्य-पूजा करे ! आज इतने सारे जैनों के जीवित होते हुए भी और उसमें समृद्धिशाली जैनों के होने पर भी एक आवाज ऐसी भी चल पडी है कि - ‘इन मन्दिरों की रक्षा कौन करेगा ? कौन इन्हें सम्भालेगा ? भगवान की पूजा के लिए केसर आदि कहाँ से लावें ? अपनी कही जाने वाली भगवान् की पूजा में भी देवद्रव्य का उपयोग क्यों न हो ? इससे आजकल ऐसा प्रचार भी चल रहा है कि - भगवान् की पूजा में देवद्रव्य का उपयोग शुरु करो।' कहीं कहीं तो ऐसे लेख भी छपने लगे हैं कि - मन्दिर की आय में से पूजा की व्यवस्था करनी ! ऐसा जब पढ़ते हैं या सुनते हैं तब ऐसा लगता है कि क्या जैन समाप्त हो गये हैं ? देवद्रव्य पर सरकार की नीयत बिगडी है, ऐसा कहा जाता है, परन्तु आज ऐसी बातें चल रही है जिससे लगता है कि देवद्रव्य पर जैनों की नीयत भी बिगडी है । नहीं तो, भक्ति स्वयं को करनी है और उसमें देवद्रव्य काम में लेना है, यह कैसे हो सकता है ? आपत्तिकाल में देवद्रव्य में से भगवान की पूजा करवाई जाय, यह बात अलग है और श्रावकों को पूजा करने की सुविधा देवद्रव्य में से दी जाय, यह बात अलग है । जैन क्या ऐसे गरीब हो गये हैं कि अपने द्रव्य से भगवान की पूजा नहीं कर सकते ? और इसलिये देवद्रव्य में से उनको भगवान की पूजा करवानी है ? जैनों के हृदय में तो यही बात होनी चाहिये कि 'मेरे द्रव्य से ही भगवान् की द्रव्यपूजा करनी है।' देवद्रव्य की बात तो दूर रही, परन्तु अन्य श्रावक के द्रव्य से भी पूजा करने का कहा जाय तो जैन कहते कि - ‘उसके द्रव्य से हम पूजा करें तो उसमें हमें क्या लाभ ? हमें तो हमारी सामग्री से पूजाभक्ति करनी है ! देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो? * २० मा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक द्रव्यपूजा किसलिए करता है ? आरम्भ और परिग्रह में ग्रस्त, जो शक्ति होने पर भी द्रव्यपूजा किये बिना भाव पूजा करता है, तो वह पूजा बाँझ गिनी जाती है। श्रावक परिग्रह के विष के निवारण के लिए भगवान् की द्रव्यपूजा करे । परिग्रह का जहर ज्यादा है न ? इस जहर को उतारने के लिए द्रव्यपूजा है । मन्दिर में जावे और कोई केसर की कटोरी दे तो उससे पूजा करें, तो इसमें उसके परिग्रह का जहर उतरा क्या ? अपना द्रव्य उपयोग में आवे तो ऐसी भावना हो सकती है कि - 'मेरा धन शरीरादि के लिये तो बहुत उपयोग में आ रहा है, उसमें धन जा रहा है और पाप बढ़ रहा है जबकि तीन लोक के नाथ की भक्ति में मेरा जो कुछ धन लगता है, वह सार्थक है ।' अपने द्रव्य से पूजा करने में, भाव वृद्धि का जो प्रसंग है, वह पराये द्रव्य से पूजा करने में नहीं आता । भाव के पैदा होने का कारण ही न हो तो भाव पैदा कैसे हो सकता हैं ? प्रश्न :- सुविधा के अभाव में जो जिनपूजा किये बिना रह जाते हौं, उन्हें यदि सुविधा दी जाय तो लाभ होता है या नहीं ? उत्तर :- श्री जिनपूजा करने की सुविधा कर देने का मन होना अच्छा है; आपको ऐसा विचार आवे कि- 'हम तो हमारे द्रव्य से प्रतिदिन श्री जिनपूजा करते है; परन्तु बहुत से ऐसे हैं जिनके पास ऐसी सुविधा नहीं है; वे भी श्री जिनपूजा के लाभ से वंचित न रह जाय तो अच्छा ।' तो यह विचार आपको शोभा देता है; परन्तु ऐसा होने के साथ ही आपको यह भी विचार आना चाहिए कि, 'अपने द्रव्य से श्री जिनपूजा करने की सुविधा जिनके पास नहीं है, उनको हमारे द्रव्य से पूजा करने की सुविधा कर देनी चाहिए ।' ऐसा मन में आने पर, 'जिनके पास पूजा करने की सुविधा नहीं, वे भी पूजा करने वाले बने, इसके लिए भी हमें हमारे धन देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २१ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का व्यय करना चाहिए - ‘ऐसा निर्णय जो आप करें तो वह आपके लाभ का कारण है। परन्तु श्री जिनपूजा करने वाले का अपना मनोभाव कैसा हो, उसकी यह बात है।' प्रश्न :- दूसरे के द्रव्य से पूजा करने वाले को अच्छा भाव नहीं ही आता है क्या ? उत्तर :- दूसरे के द्रव्य से श्री जिनपूजा करने वाले के लिए अच्छा भाव आने का कारण ही क्या है ? अपने पास श्री जिनपूजा के लिए खर्च किया जा सके - इतना द्रव्य नहीं और श्री जिनपूजा से वंचित रहना भी पसन्द नहीं, इसलिए यदि वह पराये द्रव्य से श्री जिनपूजा करता हो तो उसे - 'पूजा में पराया द्रव्य काम में लेना पड़ता है और अपना द्रव्य काम में नहीं ले सकता, यह खटकता है, ऐसा निश्चित होता है, अर्थात् उसकी इच्छा तो अपने द्रव्य से पूजा करने की हुई न ? शक्ति नहीं है, इसीलिए पर के द्रव्य से पूजा करता है न ? अवसर मिले तो वह अपने द्रव्य से पूजा करने में नहीं चूकता। ऐसी मनोवृत्ति हो तो अच्छा भाव आ सकता है । क्योंकि जिसने परिग्रह की मूर्छा उतार कर पूजा का साधन दिया, उसकी वह अनुमोदना करता ही है । परन्तु विचारने योग्य बात तो यह है कि - आज जो लोग अपने द्रव्य का व्यय किये बिना ही पूजा करते हैं, वे क्या इतने गरीब है कि - पूजा के लिए कुछ खर्च नहीं कर सकते ? जो श्रावक धनहीन हों, उनके लिए तो शास्त्र में कहा है कि - ऐसे श्रावको को घर पर सामायिक करनी चाहिये । यदि किसी को ऐसा कर्ज न हो कि जिसके कारण धर्म की लघुता का प्रसंग उपस्थित हो, तो वह श्रावक सामायिक में रहा हुआ और ईर्यासमिति आदि के उपयोग वाला बना हुआ श्री जिन मन्दिर में जाय । श्री जिन मन्दिर में जाकर वह श्रावक देख्ने कि - 'यहाँ मेरे शरीर से बन सके ऐसा किसी गृहस्थ का देवपूजा की सामग्री का कोई काम है ? जैसे कि किसी धनवान श्रावक ने प्रभुपूजा पाम देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २२ 0 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए फूल लिये हों और उन फूलों की गूंथनी करनी हो। ऐसा कोई कार्य हो, तो वह श्रावक सामायिक पार कर, उस कार्य द्वारा द्रव्यपूजा का भी लाभ ले ले । शास्त्र ने यहाँ स्पष्ट किया है कि द्रव्यपूजा की सामग्री अपने पास है नहीं और द्रव्यपूजा के लिए जरूरी सामग्री का खर्च निर्धनता के कारण स्वयं नहीं कर सकता है, तो सामायिक पार कर दूसरेकी सामग्री द्वारा वह इस प्रकार का लाभ ले, यह योग्य ही है । और शास्त्र ने ऐसा भी कहा है कि- 'प्रतिदिन अष्ट प्रकारी आदि पूजा न कर सकता हो तो कम से कम अक्षत पूजा के द्वारा भी पूजन का आचरण करना चाहिए ।' (जैन प्रवचन वर्ष - ४३ अंक - १६) - पवरेहिं साहणेहिं पायं भावो विजायए पवरो । णय अण्णो उपयोगो, एएसिं स्याणं लट्ठयरो ॥१॥ प्रभु भक्ति में, उत्तम (शुद्ध) सामग्री होने से प्रायः भाव भी उत्तम होते है और सत्पुरुषों को अपनी सामग्री को जिन भक्ति में लगाने जैसा दूसरा कोई उपयोग नहीं हैं । (श्री संबोध प्रकरण देवाधिकार गा. १६७ ) जैनंतर भी अपने मंदिर में जाते है तब धूप, फूल, फलादि खुद के लेकर जाते है । देवगृहे देवपूजाऽपि स्वद्रव्यंणैव यथा शक्ति कार्या देव मंदिर में प्रभु पूजा भी अपने स्वयं के द्रव्य से ही यथाशक्ति करनी चाहिए। (श्राद्धविधि ग्रन्थ) देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. देवद्रव्य की सुरक्षा तथा सदुपयोग करना चाहिये न कि उसका दुरुपयोग और बेदरकारी मंदिर उपाश्रयादि के जीर्णोद्धार या नव-निर्माण के कार्यों में देवद्रव्यादि के पैसे खर्चने में मितव्ययिता करो यह बात अलग है लेकिन कंजूसी नहीं करनी चाहिए । कार्य में कंजुसी करने से कार्य बिगड़ जाता हैं और देवद्रव्यादि द्रव्य का दुगुना खर्च करना पड़ता है । उसी तरह मंदिरादि के लिए कोई वस्तु लाने में भी कंजुसी नहीं करनी चाहिए । जिस तरह से कंजुसी नहीं करनी चाहिए उसी तरह ज्यादा उदारता बता कर देवद्रव्य का अधिक प्रमाण में खर्च न होवे उसका भी ध्यान रखना जरूरी है । जो ट्रस्टी वर्ग ज्यादा प्रमाण में उदारता बताकर मंदिरादि के कार्य में या मंदिरादि के लिये चीज खरीदने में देवद्रव्यादि का बेफाम खर्च करते हैं वे वास्तवमें दुःसंचालन करने वाले होते हैं। आज जगह जगह पर यह होता है कि संस्था के कार्यो में पैसे खर्चने में बहुत ही उदारता बताते हैं काम करने वाले कारीगर - मजदूरादि को पगार ज्यादा दे देते है और सामग्री खरीदने में ज्यादा भाव दे देते हैं । इस तरह करना दुःसंचालन है । दुःसंचालन किस प्रकार से होता है इस बाबत में द्रव्य सप्ततिका ग्रन्थ की १३वी गाथाके 'पण्णाहीनां भवे जो" इस पद की व्याख्या करते हुए कहा है कि : ― प्रज्ञाहीनत्वमड्गोद्धारादिना देवद्रव्यादिदानं यद् वा मन्दमतितया स्वल्पेन बहुना वा धनेन कार्य - सिद्धयवेदकत्वात् यथाकथंचित द्रव्यव्ययकारित्वं कूटलेख्य - कृतत्वं च । संचालन करने में बुद्धिहीनता यह है कि जो अधिक किमती जौहर, जमीन, जागीर आदि लिए बिना केवल अंग उधार रूप से देवद्रव्यादि देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का धन व्याजादि में देवे अथवा मंद बुद्धि हान से थोड धन से कार्य सिद्ध होगा या बहुत धन से इसकी जानकारी न होने से जानकारी पाय बिना ज्यों त्यों बिना समझे (बिनजरूरी भी) देवद्रव्यादि का व्यय कर और झुट लेख लिखें। मंदिरादि कार्यों में जो कारीगर, मजदूर वगैरह काम करने के लिए रखना हो तो उनका पगार-मजदूरी वगैरह लोक अपनी बिल्डींग वगैरह बनाने में जो देते है उस मुताबिक देने का निश्चित करना चाहिए और मंदिरादि के लिए कोई भी चीज खरीदनी है तो वह बाजार भावसे खरीदनी चाहिए । खोटी उदारता रखकर मंदिरादि की संस्था के द्रव्य का दुर्व्यय करना वह स्व और पर (कारीगरादि) के लिए देवद्रव्यादिभक्षणादि के पापबन्ध का कारण बनता है । अपने धन से मंदिरादि के कार्य करने में उदारता करो वह बात अलग है लेकिन धर्म संस्था के द्रव्य से कार्य करना है तो किफायत भाव से कार्य करके मितव्ययिता करनी आवश्यक है। मन्दिर के पुजारी आदि से तथा साफ-सफाई आदि के लिए रखे उपाश्रयादि के आदमी से अपना कोई भी कार्य नहीं करवाना चाहिये । अपना काम करवाना हो तो उसको अपनी ओर से पैसे देकर ही करवाना उचित है अन्यथा देवद्रव्यादि के भक्षण का दोष लगेगा और यह कार्य भी पुजारी आदि के द्वारा इस ढंग से तो नहीं ही करवाना चाहिये कि जिससे मन्दिर के कार्यों में प्रभुभक्ति में व्याघात होवे। जिनमन्दिरादि के संचालन करने वाले ट्रस्टीगण के दिमाग में यह बात निश्चित रूप से होनी चाहिए कि ट्रस्टी पद सत्ता भोगने का पद नहीं है लेकिन जिनमन्दिरादि संस्था के सेवक बनकर कार्य करने का पद है। आज कई जगह ट्रस्टी लोगों ने ट्रस्टी पद को मान-सन्मान-सत्ता और प्रतिष्टा का पद बना दिया है। अतः ये लोग जिनमन्दिरादि की सार देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २५ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभाल तथा देवद्रव्यादि की व्यवस्था सही ढंग से नहीं करते । जब मानसन्मानादि में बाधा खडी होने का प्रसंग उपस्थित होता है तब वे ट्रस्टी मंडल में गुटबन्द का वातावरण पैदा करके - खोटे झगड़े खड़े कर देते है। अन्न में जाकर ये खोटे झगडे संघ के संप को तोड़ कर रहते है उसके कारण कई लोग धर्म विमुख बन जाते है । ऐसे ट्रस्टी वर्ग में अरिहल परमात्मा तथा उनके शासन के प्रति श्रद्धा की कमी है। श्रद्धा – विहीन पैसेदार जब ट्रस्टी पद पर आरूढ होते है तब उनका अभिमान आसमान तक पहुंच जाता है । वे न तो जिनाजा मुताबिक संचालन कार्य करते है और न उसमें गीतार्थ गुरु भगवनों की राय लेते है ऐसे ट्रस्टी वर्ग देवद्रव्यादि - धर्मद्रव्य को अयोग्य स्थाना में लगाकर दुरुपयोग करके भयंकर पापों का बंध कर दर्गति के अधिकारी बनते है । अतः हरेक ट्रटी वर्ग महानुभावों को सूचन किया जाता है कि वे ट्रस्टीपद का मानसन्मानादि का पद न बनाकर सेवा का पद बनाये और श्री अरिहंत प्रमात्मा की आज्ञा को निगाह में रखकर समय समय पर आजा का पालन करके जिनमन्दिरादि धर्म-स्थानों का तथा देवद्रव्यादि धर्मद्रव्य का संचालन कार्य करें, जिससे अपनी आत्मा संसार सागर में नहीं डबे और दुरन्त दुःखदायी दुर्गतियों के गहरे खड्डे में नहीं गिरे। ___जैन पेढी के उत्तम संचालक सही तौर पर संचालन कार्य करके उत्तम कोटि का पुण्य लाभ उटावे इस हेतु से यह पुस्तक प्रकाशन कार्य है और यह पुस्तक ध्यान से पुनः पुनः पढकर जिनाजा मुताबिक समस्त ट्रस्टी-वर्ग संचालन कार्य सही ढंग से करे यही हमारी शुभ अभिलाषा है। देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २६ ) - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. स्वप्न द्रव्य देव द्रव्य ही है उसके अभिप्राय महेसाणा श्री सीमंधर स्वामी पेढी की तरफ से प्रकाशित हुई हैं, उसके पृष्ठ रूप से ३७ तक देवद्रव्य संबंधित अभिप्रायः देवद्रव्य मंदिर के अंदर या बहार किसी भी स्थान पर प्रभु की भक्ति निमित्ते जो कोई भी उपज : १. भंडार २. चढावे जैसे स्वप्नाजी, वरघोडा, उपधान की माला, तीर्थमाला, आरति मंगल दीपक पक्षाल विलेपन पूजन आदि ३. नाण, रथ, आंगी आदि में और उसमें मूर्ति स्थापन करवाने का नकरा ४. प्रभु भक्ति के लिए अर्पण की हुई वस्तुए या रकम ५. प्रतिष्ठा, भक्ति, स्नात्र महोत्सव, अंजनशलाका आदि के चढावे ६. मंदिरजी की जमीन की रकम ७. देवद्रव्य का जो व्याज आता है वो रकम उपरोक्त व्याख्या में जिन जिन बाबत का समावेश करने में आया हैं उन उन बाबत की आय अगर उपज का हवाला देवद्रव्य खाते में जमा करवाने का रखना चाहिए । देवद्रव्य का उपयोग :- जिन मूर्ति और जिन मंदिर के सिवाय किसी भी कार्य में उपयोग करना नहि । अर्थात् उनका उपयोग निम्न बताये हुए कार्यों में हो सकता है । १. प्रभु के आभूषण, चक्षु, टीका, लेप आंगी आदि करवाना २. मंदिर का जीर्णोद्धार रंग रोगान आदि करवाना ३. नूतन मंदिर बनवाना और दूसरे मंदिरो में सहायता करनी ४. ध्वज कलश, इंडा चढाना देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? २७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. मंदिर और उनके द्रव्य की व्यवस्था करनी ६. मंदिर और उनकी मिल्कत संबंधित टेक्स और चीमा का प्रिमियम आदि देना साधारण द्रव्य : व्याख्या :- मंदिर संबंधित स्वर्थ जो देवद्रव्य के खाते में से खर्च नहीं कर सकते हैं। उसके लिए उपाश्रय या बहार किया हुआ चंदा भंडोल और कोई भी साधारण खाते की आवक हो या हुई हो उसको नीचे बताये हुए कार्यो के लिए उपयोग कर सकते हैं । ७. केसर, सुखड, बादला आदि प्रभु पूजा का द्रव्य खरीदने का, पूजा करने वाला, दर्शन करने आनेवाला, ललाट पर तिलक करे, पूजा के लिए केसर चंदन का खर्च, नहाने का एवं हाथ पाव धोने का पाणी, लुछने का कपडा, पाद लूछन आदि का खर्च कर सकते हैं । ८. अंग लुछना, वालाकुंची, कलश, कुंडी आदि बर्तन धुपदानी कंडिल आदि खरीद कर सकते हैं । ९. धूप दीपक के लिए घी की बरणी, रोशनी आदि सम्बन्धी वस्तुए आदि खरीद कर सकते हैं । १०. मंदिर के कार्य धोतिया खेस कामलि तथा हिना के पूजा के वस्त्रादि खरीद कर सकते है । ११. के लिए पूजारी, घाटी, महंताजी आदि नोकरों का वेतन आदि दे सकते हैं । १२. प्रक्षाल संबंधित पानी दूध आदि लेने का और न्हाण आदि परावने का खर्च कर सकते है । वि.सं. १९९० में अहमदाबाद के अन्दर भ्रमण सम्मेलन द्वारा देवद्रव्य देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २८ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधी किया गया महत्त्वपूर्ण निर्णय । ... १. देव-द्रव्य-जिन-चैत्य तथा जिन-मूर्ति के सिवाय अन्य किसी भी क्षेत्र में उपयोग नहीं किया जा सकता। २. प्रभु के मंदिर में या बहार किसी भी स्थान पर प्रभुजी के निमित्त जो जो बोलीया बोली जाती है वह सभी देव द्रव्य कहा जाता है। ३. उपधान संबंधी माला आदि की एवं देव द्रव्य में ही ले जाना उचित है। ४. श्रावको का अपने स्वयं के द्रव्य से प्रभु की पूजा आदि का लाभ लेना चाहिए किन्तु किसी स्थान में अन्य सामग्री के अभाव में प्रभु की पूजा आदि में विघ्न आता हो तो देवद्रव्य में से प्रभु पूजा आदि का प्रबंध करना चाहिए। लेकिन प्रभु की पूजा आदि तो अवश्य होनी ही चाहिए । ५. तीर्थ और मंदिरों के व्यवस्थापको को चाहिए कि तीर्थ और मंदिर संबंधी कार्य के लिए आवश्यक धन राशि रखकर शेष रकम से तीर्थोद्धार और जीर्णोद्धार तथा नूतन मंदिरों के लिए योग्य मदद देनी चाहिए ऐसी यह सम्मेलन भलामन करता है। . विजय नेमिसृरि, जयचंद्रसूरि, विजय सिद्धि सूरि, आनंद सागर ... विजय वल्लभसूरि, विजयदानसृरि, विजय नीतिसूरि, मुनि सागरचंद, विजय भूपेन्द्रसूरि अखिल भारतीय वर्षीय जैन श्वे. श्रमण सम्मेलन ने सर्वानुमति से शास्त्रीय पट्टक रुप नियम किये है । उसकी मूल कापी सेट आनन्दजीकल्याणजी जैन पेढी को सुपर्त की हैं। श्री राजनगर जैन संघ कस्तुरचंद, मणीलाल वंडावीला .. ता. १०-४-३४ वि. सं. १९७६, २००७, २०१४ के सम्मेलनो के निर्णय भी इसी प्रकार हैं। CH देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २९ - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. पू. आ. श्री प्रेमसूरिजी म. देवद्रव्य को मंदिर-साधारण में जाने का आक्षेप मिथ्या है। प.पू. पाद आचार्य देव श्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. के तरफ से शान्ताक्रुझ मध्ये देवगुरु भक्तिकारक सुश्रावक जमनादासभाई योग्य धर्मलाभ । आपका पत्र मिला, पढ़कर समाचार जाने । सूरत-भरुच, अहमदाबाद, महेसाणा और पाटन में मेरी जानकारी के अनुसार किसी अपवाद के सिवाय स्वप्न की आय देवद्रव्य में जाती है । बडौदा में पहले हंसविजयजी लायब्रेरी में ले जाने का प्रस्ताव किया था परन्तु बाद में उसे बदलकर देवद्रव्य में ले जाने की शुरूआत हुई थी। खंभात में अमर - शाला में देवद्रव्य में ही जाता है । चाणस्मा में देवद्रव्य में जाता है । भावनगर की निश्चित जानकारी नहीं है। अहमदाबाद में साधारण खाता के लिए प्रतिघर से प्रतिवर्ष अमुक रकम लेने का रिवाज है जिससे केशर, चन्दन, धोतियां आदि का खर्च हो सकता है। ऐसी योजना अथवा प्रतिवर्ष शक्ति अनुसार पानी की योजना चलाई जाय । परंतु साधारण खाते में ले जाना तो उचित नहीं लगता। तीर्थंकर देव को लक्ष्य में रखकर ही स्वप्न है तो उनके निमित्त से उत्पन्न रकम देवद्रव्य में ही जानी चाहिए। “गप्प-दीपिका समीर" नाम की पुस्तिका में प्रश्नोत्तर में पूज्य स्व. आचार्यदेव श्री विजयानंदसूरिजी का ऐसा ही अभिप्राय छपा हुआ है। सबको धर्मलाभ कहेना। द. हेमंतविजय के धर्मलाभ पा देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३० Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. पू. मुनिराज श्री धर्मविजयजी म. ( आ. भ. श्री. वि. धर्मसूरिजी म. ) भी स्वप्नाजी की बोली देवद्रव्य स्वीकारते है । उन्ही के पत्र द्वारा स्पष्टीकरण श्री नया शहर से लि. धर्मविजयादि साधु ७ का श्री पालनपुर तत्र देवादि - भक्तिमान् मगनलाल कक्कल दोशी योग्य धर्मलाभ बांचना । आपका पत्र मिला । घी (बोली) सम्बन्धी प्रश्न जाने । प्रतिक्रमण संबंधी तथा सूत्र संबंधी जो बोली हो वह ज्ञान खाते में ले जाना उचित है। स्वप्न सम्बन्धी घी की उपज स्वप्न बनवाने, पालने बनवाने आदि में खर्च करना उचित है । शेष पैसे देवद्रव्य में लेने की रीति प्रायः सब स्थानों पर हैं उपधान में जो उपज हो वह ज्ञान खाते में तथा नाण आदि की उपज देवद्रव्य में जाती है। विशेष आपके यहां महाराज श्री हंसविजय जी म.सा. बिराजमान है उनको पूछना । एक गाँव का संघ कल्पना करें वह नहीं चल सकता । आज कल साधारण खाते में विशेष पैसा न होने से कई गाँवो में स्वप्न, आदि की उपज साधारण खाते में लेने की योजना करते हैं परन्तु मेरी समझ से यह टीक नहीं है, देव दर्शन करते याद करना । इस प्रकार आ. भ. श्री. वि. धर्मसूरि महाराजने मुनि धर्म वि. के नाम से आचार्य पदवी के पहले लिखे हुए पत्रमें स्पष्ट कहा है कि "स्वप्न सम्बन्धी घी की उपज का स्वप्न बनवाने, पालना बनवाने आदि में खर्च करना चाहिए बाकी के पैसे देवद्रव्य में ले जाने की पद्धति सर्वत्र मालूम होती है । तदुपरान्त वे स्पष्ट कहते है 'कि एक गाँव का संघ - कल्पना करे वह चल नहीं सकता, इसी तरह वे आगे कहते हैं कि 'आजकल साधारण खाते में विशेष पैसा न होने से कुछ गाँवो में स्वप्न आदि की योजना करते हैं परन्तु यह टीक नहीं है । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वडोदरा जैन संघ के पारित प्रस्ताव से भी स्वप्नाजी की बोली देवद्रव्य है का पुष्टिकररण ता. ३-१०-१९२० वडोदरा में श्री पयुषण पर्व में देवद्रव्य सम्बन्धी महेसाणा संघ की तरफ से आई हुई जाहिर विनंती के सम्बन्ध में प्रश्न उठने पर पं. श्री मोहनविजयजी (स्व. आ.भ. श्री. विजय मोहन सूरि म.) ने देवद्रव्य शास्त्राधारित आगमोक्त है इस विषय पर शास्त्रपाठों से दो घंटे तक व्याख्यान देकर मूल रिवाज को कायम रखने की सूचना की थी। अतः देवद्रव्य की आय के सम्बन्ध में चले आते रिवाज को शास्त्राधार के कारण अस्खलित रूप में चालू रखना। उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न करना - यह टहराया जाता है । देव निमित्त बोली गई बोली देवद्रव्य है अतः किसी प्रकार का परिवर्तन न किया जाय । इतर को भी भलामण करने का प्रस्ताव किया गया । साथ ही छाणी में रहे हुए उनके शिष्य मु. प्रतापविजयजी (पू. आ. भ. श्री विजयप्रताप सूरि म. श्री) के नेतृत्व में भी वैसा ही प्रस्ताव हुआ था । (दैनिक पत्र' के समाचार से उद्धृत). (हिन्दी में अनुवादित) प देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३२ नाम Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. शास्त्र के अनुसार बोली की आवक देवद्रव्य ही है । स्वप्नों की और मालारोपण की उपज देवद्रव्य ही है । इस विषय में पृ.आ. सागरानंद सूरीश्वरजी महाराज श्री का स्पष्ट शास्त्रानुसारी फरमान - स्वप्नों की आय के विषय में तथा उपधान तप की माला संबंधी आय के विषय में श्री संघ को स्पष्ट रीति से मार्गदर्शन देने हेतु पू. पाद आचार्य भगवंत श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी महाराज श्रीने “सागर समाधान" ग्रन्थ में जो फरमाया है वह प्रत्येक धर्माराधक के लिए जानने योग्य है। प्रश्न-२९७ उपधान में प्रवेश तथा समाप्ति के अवसर पर माला की बोली की आय ज्ञानखाते में न ले जाते हुए देवद्रव्य में क्यों ले जायी जाती है ? • समाधान :- उपधान ज्ञानाराधन का अनुष्टान है, इसलिए ज्ञान खाते में उसकी आय-जा सकती है - ऐसा कदाचित् आप मानते हो । परन् उपधान में प्रवेश से लेकर माला पहनने तक की क्रिया समवसरण रूप नंदि के आगे होती है । क्रिया प्रभुजी के सम्मुख की जाने के कारण उनकी उपज देवद्रव्य में ले जानी चाहिए। प्रश्न-२९८ स्वप्नों की उपज तथा उनका घी देवद्रव्य खाते में ले जाने की शुरुआत अमुक समय से हुई है तो उसमें परिवर्तन क्यों नहीं किया जा सकता है ? .. समाधान :- अर्हत परमात्मा की माता ने स्वप्न देखे थे अतः वस्तुतः उसकी सारी आय देवद्रव्य ही है । अर्थात् देवाधिदेव के उद्देश्य देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से ही यह आय है । ध्यान में रखना चाहिए कि च्यवन, जन्म, दीक्षा ये कल्याणक भी श्री अरिहंत परमात्मा के ही है । इन्द्रादिकों ने श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति भी गर्भावतार से ही की है। चौदह स्वप्नों का दर्शन अरिहन्त भगवान कुक्षि में आवे तभी उनकी माता को होता है। तीन लोक में प्रकाश भी इन तीनों कल्याणको में होता है । अतः धार्मिक जनां के लिए गर्भावस्था से ही अरिहंत भगवान है । (सागर समाधान में से) पू. हंस विजयजी म. का पत्र श्री पालनपुर संघ को मालूम हो कि आपने आट बाबत का स्पष्टीकरण करने के लिए मुझे प्रश्न पूछे हैं। उनका उत्तर मेरी बुद्धि के अनुसार आपके सामने रखता हूं । प्रश्न- १ : पूजा के समय घी बोला जाता है, उसकी उपज किस खाते में जाती है ? उत्तर :- पूजा के लिए घी की उपज देव द्रव्य के रूप में जीर्णोद्धार आदि कार्य में ही लगाई जा सकती है । प्रश्न- २ : प्रतिक्रमण के सूत्रों के निमित्त घी बोला जाता है, उसकी उपज किस क्षेत्र में लगाई जाय ? उत्तर : प्रतिक्रमण सूत्र सम्बन्धी उपज ज्ञान खाते में, आगमादि (छपवाने) लिखवाने के कार्य में भी जा सकती हैं। प्रश्न- ३ : स्वप्नों के घी की उपज किस कार्य में ली जाय ? उत्तर : इस संबंध के अक्षर किसी शास्त्र में मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुए लेकिन श्री सेन प्रश्न और हीरप्रश्न नाम के शास्त्र में उपधान माला पहनने का घी की उपज को द्रव द्रव्य में गिनी है। इसी शास्त्र के आधार देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से कह सकता हूं कि स्वप्नों की उपज को देवद्रव्य के रूप में मानना चाहिए । इस सम्बन्ध में मेरे अकेले का ही यह अभिप्राय नहीं हैं अपितु श्री विजय कमल सूरीश्वरजी म. का तथा उपा. वीर विजयजी म. का और प्रवर्तक कान्ति विजयजी म. आदि महात्माओ के भी ऐसा ही अभिप्राय है कि स्वप्नों की उपज देव द्रव्य में जाती हैं । प्रश्न- ५ : देवद्रव्य मे से पूजारी को वेतन दिया जा सकता है या नहीं ? उत्तर : पूजा अपने लाभ के लिए करने की हैं । परमात्मा को उसकी आवश्यकता नहीं है । इसलिए पूजारी को वेतन देवद्रव्य में से नहीं दिया जा सकता है, कदाचित किसी वसति रहित गांव में दूसरा कोई साधन किसी भी तरह से नहीं बन सकता हो तो चावल आदि की उपज में से पगार दी जा सकती हैं । प्रश्न- ६ : देव के स्थान पर पेटी रक्खी जा सकती है या नहि ? उत्तर : पेटी में साधारण और पानी सम्बन्धी खाता न हो तो रखी जा सकती है, लेकिन कोई अनजान व्यक्ति देव द्रव्य या ज्ञान द्रव्य को दूसरे खाते में भूल से न डाले ऐसी पूरी व्यवस्था होनी चाहिए। साधारण खाता की यदि पेटी हो तो वह देव के स्थान में उपार्जित द्रव्य श्रावकश्राविकाओं के उपयोग में कैसे आ सकता है ? यह विचार करने योग्य हैं। प्रश्न- ७ : नारियल चावल बादाम की उपज किस क्षेत्र में जाती है ? उत्तर : नारियल चावल बादाम की उपज देवद्रव्य खाते में जमा होनी चाहिए । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र-८ : आंगी की बढ़ोत्री किस खाते में गिनी जाय ? उत्तर : आंगी की बढोत्री निकालना उचित नहीं है । क्योंकि उसमें कपट क्रिया लगती हैं । इसलिए जिसने जितने की आंगी करवाने का कहा है उतने पैसे खर्च करके उसकी तरफ से आंगी करवानी चाहिए । षडावश्यक प्रश्नावली लेखक मुनि श्री जयानंद विजयजी प्रश्न- १५६ : जिन मंदिर के पुजारी को वेतन किस द्रव्य से देना ? उत्तर : जिन पूजा अपने स्वयं के लिए करने की है जिससे अपने को समयाभाव आदि के कारण अगर प्रभु पूजा के लिए पूजारी रखना ही पडे तो उसका वेतन खूद का या साधारण खाते में से देना चाहिए । न कि देव द्रव्य से । प्रश्न- १५३ : प्रतिष्ठा के समय बोली के रूपयों से न्याति नोहरा स्कूल आदि बनवा सकते है ? उत्तर : नहीं । नौकारशी आदि साधारण के चढ़ावे की रकम धर्मकार्य (सांत क्षेत्र) में खर्च की जा सकती है, लेकिन न्याति नोहरा स्कूल आदि पाप कारी कार्य में खर्च करने से जिनाज़ा का भंग करने का पाप लगता है । उस कार्य को करनेवाले एवं उसका उपयोग करनेवालों को दुर्गति प्रायोग्य कर्म का बंध होता है। देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. आ. श्री वि. वल्लभसूरिजी भी ने पुरुषों की सभा मे साध्वीजी के व्याख्यान के विरोधी थे एवं स्वप्न द्रव्य को देव-द्रव्य ही माना है 1 साध्वीजी द्वारा पुरुषों को सभा में व्याख्यान वांचने का विरोध शास्त्रानुसार व्यक्त करते हुए आचार्यजी वल्लभसूरिजी लिख रहे हैं कि " महावीर स्वामी की ३६ हजार साध्वियोंने अनेक प्रकार के तप किये तथा एका-दशांग शास्त्र पढे है परंतु किसी साध्वीने कोई पुस्तक नहीं रची है और न पुरुषों की सभा में बँढकर उपदेश किया है" इत्यादि अपना मन्तव्य सचोट एवं निर्भयता से प्रकट किया है। बाद में वे स्वप्न की उपज के सम्बन्ध में अपने विचार इस पुस्तक में स्पष्ट करते है । पृष्ट ८६ पर इस प्रकार लिखा कि देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. स्वप्नों की उपज देवद्रव्य में ही जाती है । प्रश्न ९ : स्वप्न उतारना, घी चढाना, फिर नीलाम करना और दो तीन रूपये मण बेचना, यह क्या भगवान् का घी सौदा है क्या ? वह लिखा । उत्तर ९ :- स्वप्न उतारना, घी बोलना इत्यादि धर्म की प्रभावना और जिनद्रव्य (देवद्रव्य) की वृद्धि का हेतु है। धर्म की प्रभावना करने से प्राणी तीर्थंकर नामकर्म बांधता है, यह कथन श्री जातासूत्र में है और जिनद्रव्य की वृद्धि करने वाला भी तीर्थंकर नामकर्म बांधता है, यह कथन भी संबोध सत्तरी शास्त्र में हैं। घी की बोलने के वास्ते लिखा है इसका उत्तर यह है कि जैसे तुम्हारे आचारांगादि शास्त्र भगवान की वाणी जो दो-चार रूपये में बिकती है ऐसे घी का भी मोल पड़ता है । प्रश्न १० :- माला नीलाम करनी, प्रतिमाजी की स्थापना करनी और भगवानजीका भंडार रखना कहाँ लिखा है ? उत्तर १० :- मालोद्घाटन करना, प्रतिमाजी स्थापना करनी तथा भगवानजी का भंडार रखना यह कथन 'श्राद्ध विधि' शास्त्र में है । ढुंढक हितशिक्षा 'अपर नाम गप्प दीपिका समीर । प्रगट कर्ता नाम - श्री जैन धर्म प्रचारक सभा' भावनगर । संवत १९४८ अहमदाबाद ( युनियन प्रीन्टींग प्रेस में प्रकाशित) लेखक मुनि वल्लभविजयजी * -- स्वप्ना की बोली प्रभु के च्यवन कल्याणक निमित्त होने से प्रभु निमित्त की ही बोली होने से इस बोली का द्रव्य भी देव-द्रव्य ही है । साधारण द्रव्य की उपज करने के लिए चार आना या आठ आना वगैरह स्वप्न की बोली के ऊपर जो सर्चार्ज लगाया जाता है और वह सर्चार्ज में आये धन को साधारण द्रव्य मानकर साधु आदि की भक्ति देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३८ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उपयोग में लेते हैं वह बहुत ही अनुचित है उसमें देव-द्रव्य की आमदानी में घाटा पड़ने से उसके भक्षण करने का और कराने का बडा भारी पाप लगता है । जैसे आदमी को ५०० रुपये स्वप्नाजी की बोली में खर्चना है तो वह बोली पर सर्चार्ज लगाया हो के न लगाया हो तो भी ५०० रु. ही खर्चेगा सर्जि लगाया तो वह निर्धारित रकम से ज्यादा खर्चेगा ऐसा तो है ही नहीं अतः सर्चार्ज लगाई बोली में जो ५०० रुपये खर्चे । उसमें से ४००-४५० रुपये देव-द्रव्य में लिये गये और १०० या ५० साधारण में लिये ये १०० या ५० रु. का देव द्रव्य में घाटा पडा । यदि बोली पर सर्चार्ज न लगाया होता तो ५०० रुपये देव द्रव्य में ही जाते, घाटा पड़ने की कोई आपत्ति ही नहीं आती। इस कारण स्वप्नाजी वगैरह की बोली पर सर्चार्ज लगाना और सर्चार्ज में आये पैसे को साधारण खाते में लेना किसी भी तरह से युक्त नहीं है। उसी तरह गुरु के एकांग या नवांग पूजा का, गुरु की अग्र-पूजा का तथा गुरु पूजाभक्ति निमित्त बोले चढावे का द्रव्य भी देव-द्रव्य में ही लेना चाहिए लेकिन कई गांवो में गुरु के अंगअग्र पूजा का तथा गुरु भक्ति निमित्त बोले चढावे के द्रव्य को साधु आदि की वैयावच्च खाते में लेकर गुरु-भक्ति वगैरह में उपयोग करते हैं यह प्रवृत्ति भी शास्त्र विरुद्ध है। ___ द्रव्य सप्ततिका वगैरह कई शास्त्रों में इस द्रव्य को देव-द्रव्य में ले. जाने का विधान किया है ये रहे उन विधान के पाठ : बालस्य नामस्थापनावसरे गृहादागत्य सबालः श्राद्धः वसतिगतान गुरुन् प्रणम्य नवभिः स्वर्णरुप्यमुद्राभिर्नवांग- पूजांकृत्वा गृह्यगुरुदेवसाक्षिकं दत्तं नाम निवेदयति । तत उचितमत्रेण वासमभिमन्वय गुरु ॐकारादिन्यासपूर्वं बालस्य स्व-साक्षिकां नामस्थापनामनुज्ञापयति । तथा द्विस्त्रिर्वाऽष्टभेदादिका पूजा संपूर्णदेववंदनं चैत्ये पि सर्वचैत्यानामर्चनं वंदनं वा स्नात्रमहोत्सवमहापूजाप्रभावनादि, गुरोर्वृहद वन्दनं अङ्गपूजा प्रभावना स्वस्तिकरचनादिपूर्वं व्याख्यानश्रवणमित्यादि CH देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३९ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमा वर्षाचातुर्मास्यां विशेषतो ग्राह्या इति । एवं प्रश्नोत्तरसमुच्चयाचारप्रदीपाचारदिनकर श्राद्धविध्याद्यनुसारेण श्रीजिनस्येव गुरोरपि सम्बन्धेन अङ्गाग्रपूजा सिद्धा तद्धनं च गौरवार्हस्थाने पूजा प्रयोक्तव्यमिति । - बालक का नामस्थापन करने के समय श्रावक अपने बालक को लेकर घर से निकल कर गुरु महाराज के उपाश्रय में आवे वहाँ गुरु महाराज को प्रणाम करके नव सुवर्ण या चांदी के महोर से गुरु की नवांग पूजा करके घर के (गृहस्थ ) गुरु और देव की साक्षी में जो नाम रखा हो वह (गुरु महाराज को) निवेदन करे तत्पश्चात् गुरु महाराज योग्य मंत्र से वासक्षेप को मंत्रित कर ॐकारादि की स्थापनापूर्वक वासक्षेप डालकर अपनी साक्षी से उस बालक का नाम-स्थापन अपनी आज्ञापूर्वक की करते है । तथा दो-तीन या अष्टभेदी पूजा करनी। मंदिर में संपूर्ण देव-वंदन, बड़े मंदिर में सकल जिनबिम्बों की पूजा, वंदना, स्नात्र महोत्सव, महापूजा, प्रभावना वगैरह गुरु को बडा (द्वाद्वशावर्त) वंदन गुरु की अंग पूजा तथा प्रभावना, गुरु के समक्ष स्वस्तिक की रचना करके व्याख्यान श्रवण करना इत्यादि नियमों को चोमासे में विशेष करके ग्रहण करने चाहिए । इस प्रकार प्रश्नोत्तर समुच्चय, आचार प्रदीप, आचार दिनकर तथा श्राद्धविधि वगैरह ग्रन्थों के अनुसार श्री जिनेश्वर भगवान की अंग और अग्र पूजा की तरह गुरु की अंग पूजा और अग्र पूजा सिद्ध होती है और गुरु की अंग और अग्र पूजा के द्रव्य का उपयोग पूजा के सम्बन्ध से गौरवता वाले स्थान में लेना चाहिए यानी गुरु से भी ज्यादा पूजनीय देवाधिदेव है उस स्थान में यानी जिनमंदिर और जिनमूर्ति क्षेत्र के देवद्रव्य में गुरुपूजा के द्रव्य का उपयोग करना चाहिए । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. क्लीन एडवांस (Clean Advance) कदापि नहीं देना स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ही है, यह विषय इस पुस्तिका में स्पष्ट और सचोट रीति से शास्त्रानुसारी परम्परा से जो सुविहित पापभीरु महापुरुषों द्वारा विहित है - प्रतिपादित और सिद्ध हो चुका है। अब प्रश्न यह होता है कि देवद्रव्य की व्यवस्था और उसकी रक्षा किस प्रकार की जाय ? उसका सदुपयोग किस तरह करना ? इस सम्बन्ध में पू. सुविहित शिरोमणि आचार्य भगवन्त श्री विजयसेन सूरीश्वरजी महाराज ने श्री ‘सेनप्रश्न' ग्रन्थ में जो फरमाया है, उन प्रमाणों द्वारा इस विषय की स्पष्टता करना आवश्यक होने से वे प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं । सेनप्रश्न :- उल्लास दूसरा पं. श्री कनकविजयजी गणिकृत । प्रश्नोत्तर :- जिनमें ३७ वां प्रश्न है कि, 'ज्ञानद्रव्य-देवकार्य में लगाया जा सकता हैं या नहीं ? यदि देवकार्य में लगाया जा सकता है तो देवपूजा में या प्रासादादि के निर्माण में ? इस प्रश्न के उत्तर में स्पष्टरूप से बताया गया है कि, 'देवद्रव्य केवल देव के कार्य में लगाया जा सकता है और ज्ञानद्रव्य ज्ञान में तथा देवकार्य में लगाया जा सकता है । साधारण द्रव्य सातों क्षेत्र में काम आता है। ऐसा जैन सिद्धान्त है...।' __इससे यह स्पष्ट है कि स्वप्न -- द्रव्य शास्त्रानुसार एवं सुविहित परम्परानुसार देवद्रव्य ही है तो उसका सदुपयोग देव की भक्ति के निमित्त के अतिरिक्त अन्य कार्यों में किन्हीं भी संयोगों में नहीं हो सकता। श्रावक देवद्रव्य को ब्याज से ले सकता है या नहीं ? श्रावक को देवद्रव्य व्याज से दिया जा सकता है या नहीं ? तथा देवद्रव्य की वृद्धि या रक्षा कैसे करनी ? इसके सम्बन्ध में 'सेनप्रश्न' के दूसरे उल्लास में, मा देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. श्री जयविजयजी गणिकृत प्रश्न हैं । दूसरे प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट कहा गया है कि, ____ 'मुख्यरूप से तो देवद्रव्य के विनाश से श्रावकों को दोष लगता है परन्तु समयानुसार उचित ब्याज देकर दिया जाय तो महान् दोष नहीं परन्तु श्रावको के लिए उसका सर्वथा वर्जन किया हुआ है, वह निःशूकत्व न आ जाय, इसके लिए है। साथ ही जैन शासन में साधु को भी देवद्रव्य के विनाश में दुर्लभ-बोधिता और देवद्रव्य के रक्षण का उपदेश देने में उपेक्षा करने से भवभ्रमण बताया है। अतः सुज्ञ श्रावको को देवद्रव्य से व्यापार न करना ही युक्तियुक्त है। क्योंकि किसी समय भी प्रमाद आदि से उसका उपभोग न होना चाहिए । देवद्रव्य को अच्छे स्थान पर रखना, उसकी प्रतिदिन सार सम्भाल करनी । महानिधान की तरह उसकी रक्षा करने से तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है । जैनेतर को वैसा ज्ञान नहीं होने से निःशूकता आदि असम्भव है । अतः गहनों पर ब्याज से देने में दोष नहीं है । अभी ऐसा व्यवहार चलता है। देवद्रव्य की सुरक्षार्थ किसीको क्लीन एडवांस (CleanAdvance) नहीं देना चाहिये ऋण की राशि से ज्यादा किंमत की बहुमूल्य वस्तु अपने कब्जे में देवद्रव्य व्याज में देना चाहिये। ___ इस पर से स्पष्ट है कि, देवद्रव्य का उपयोग श्रावक को व्यापारादि के हेतु ब्याज से देने में भी दोष है । तो फिर देवद्रव्य से बंधवाये गये मकान, दुकान या चाली में श्रावक कैसे रह सकते हैं ? निःशूकता दोष लगने के साथ ही, उसके भक्षण का, अल्प भाडा देकर या विलम्ब से भाडा देने से उसके विनाश के दोष की बहुत सम्भावना रहती है । 'सेनप्रश्न' में स्पष्ट बताया है कि 'साधु भी यदि देवद्रव्य के रक्षण का उपदेश न करे या उसकी उपेक्षा करे तो उसका भवभ्रमण बढता है।' - देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४२ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसीलिये पू. पाद आचार्यादि श्रमण भगवन्त उसका विनाश होता हो तो अवश्य उसका प्रतिकार करने के लिए दृढतापूर्वक उपदेश करते हैं । देवद्रव्य की रक्षा तो तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कारण बनता है अर्थात् देवद्रव्य जहाँ साधारण में ले जाया जाता हो वहाँ श्री चतुर्विध संघ को, जिनाज्ञारसिक संघ को उसका प्रतीकार करना चाहिए । यह अपना धर्म है, कर्तव्य है, यह श्री जिनेश्वर भगवन्त की आज्ञा की आराधना है। यह पू. आ. भ. श्री विजयसेनसूरीश्वरजी महाराज श्री के द्वारा फरमाये हुए उपर्युक्त विधान से स्पष्ट होता है । 'श्रावक अपने घर मन्दिर में प्रभुजी की भक्ति के लिए प्रभुजी के आभूषण करावे, कालान्तर में गृहस्थ कारण होने पर अपने किसी प्रसंग पर उन्हें काम में ले सकता है या नहीं ? पं. श्री विनयकुशल गणि के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए 'सेनप्रश्न' में श्री सेनसूरिजी म. ने फरमाया है कि 'यदि देव के निमित्त ही कराये गये आभूषण हो तो अपने उपयोग में नहीं लिये जा सकते ।' (सेनप्रश्न : प्रश्न : ३९, उल्लास : ३) - इस पर से यह स्पष्ट है कि देव के लिए कराये गये, देव की भक्ति के लिए कराये गये आभूषण, घर मन्दिर में देव को समर्पित करने के उद्देश्य से कराये गये आभूषण श्रावक को अपने उपयोग में लेना नहीं कल्पता तो स्वप्न की बोली प्रभुभक्ति निमित्त प्रभु के च्यवन प्रसंग को लक्ष्य में रखकर बोली जाने के कारण देवद्रव्य है तो उसका उपयोग साधारण खाते में कभी नहीं हो सकता, यह बात खास तौर से ध्यान में रख लेनी चाहिए । कल्याणक 'सेनप्रश्न' के तीसरे उल्लास में पं. श्री श्रुतसागरजी गणिकृत प्रश्नोत्तर में प्रश्न है कि, 'देवद्रव्य की वृद्धि के लिए उस धन को श्रावकों देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४३ ― Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा ब्याज से रखा जा सकता है या नहीं ? और रखने वालों को वह दूषणरूप होता है या भूषणरूप ? इस प्रश्न का उत्तर पू. आ. भ. श्री विजयसेन सूरीश्वरजी महाराज स्पष्ट रूप से फरमाते हैं कि, श्रावकों को देवद्रव्य ब्याज से नहीं रखना चाहिए क्योंकि निःशुकत्व आ जाता है । अतः अपने व्यापार आदि में उसे व्याज से नहीं लगाना चाहिये । 'यदि अल्प भी देवद्रव्य का भोग हो जाय तो संकाश श्रावक की तरह अत्यन्त दुष्ट फल मिलता है ।' ऐसा ग्रन्थ में देखा जाता है । ( सेनप्रश्न : प्रश्न २१, उल्लास : ३) इससे पुनः पुनः यह बात स्पष्ट होती है कि, देवद्रव्य की एक पाई भी पापभीरु सुज्ञ श्रावक अपने पास ब्याज से भी नहीं रखे । इसी प्रकार बोली बोलकर देवद्रव्य की रकम अपने पास वर्षो तक बिना ब्याज से केवल उपेक्षा भाव से रखते हैं, भुगतान नहीं करते हैं, उन विचारों की क्या दशा होगी ? इसी तरह बोली में बोली हुई रकम को अपने पास मनमाने ब्याज से रखे रहते हैं, उनके लिये वह कृत्य सचमुच सेनप्रश्न- कार पूज्यपाद श्री फरमाते है उनको बहुत 'दुष्ट फल देनेवाला बनता है' यह नि:शंक है । केचित्तु श्राद्धव्यतिरिक्तेभ्यः समधिकं ग्रहणकं गृहीत्वा कालान्तरेणापि यद् वृद्धिरूचितैव । इत्यादुः “यह द्रव्यसप्ततिका ग्रंथ की ८वीं गाथा की स्वोपज्ञ टीका में कहा है इसका भावार्थ यह है कि कई कहते है कि अधिक किंमत के गहने आदि लेकर श्रावको के सिवाय को व्याज में देकर देवद्रव्य बढाना उचित है ।" विवेक विलास ग्रन्थ में कहा है कि देव-द्रव्यादि धर्म - द्रव्य किसी को भी व्याज में उधार देना हो तो सोने चांदी के गहने तथा जमीन जागीरदारी के ऊपर देने चाहिए । गहने या जमीन आदि के लिए बिना देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य को उधार में देने से द्रव्य डूब जाने की ज्यादातर संभावना रहती है। द्रव्य-सप्ततिका ग्रन्थ में भी इस बात का निर्देश किया है और इस बात के साथ श्रावको को भी देव-द्रव्यादि द्रव्य अपने पास ब्याजादि से नहीं रखना चाहिये यह भी कथन किया है - वह इस तरह है : एवं सति यत्तद्वर्जनं तन्निःशुकतादिदोषसंभवपरिहारार्थं ज्ञेयम् । तेनेतरस्य तद्भोगविपाकानभिज्ञस्य निःशुकताद्यसंभवात् वृद्ध्यर्थसमधिकग्रहणकग्रहणपूर्वकसमर्पणे न दोषः । सशुकादौतु समर्पणव्यवहाराभावात् । निःशुकतादि दोष का परिहार करने के लिए श्रावको को अपने पास वृद्धि के लिए देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य को व्याजादि से रखने का वर्जन किया है अतः देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य का भोग करने से कितना बुरा परिणाम आता है ऐसा जिसको ज्ञान नहीं वैसे परधर्मी जैनेतर आदमी को निःशुकतादि होने की संभावना नहीं होती इस कारण उसको देवद्रव्यादि द्रव्य की वृद्धि के लिए अधिक कीमत वाले सोने चांदी वगैरह के गहने आदि को लेकर देव-द्रव्यादि द्रव्य व्याज में देना कोई दोषपात्र नहीं है । जिसको देव-द्रव्यादि द्रव्य का भोग करने में सुग है वैसे जैनेतर आदमी को भी ब्याज में देने का व्यवहार नहीं करना चाहिए। . इस पाठ का तात्पर्य यह है कि परधर्मी जैनेतर को यह जानकारी नहीं होती कि देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य का भक्षण करने से बहुत पाप लगता है । इस कारण उनको देव-द्रव्यादि का भक्षण करने में निःशुकता नहीं आती। अतः उसको ज्यादा कीमत के गहने वगैरह के ऊपर देव-द्रव्यादि की रकम व्याज में देने में कोई दोष नहीं है लेकिन श्रावक को तो देवद्रव्यादि का भक्षण करने में बडा पाप लगता है यह ज्ञान है अतः वह देवद्रव्यादि का भक्षण करे तो उसको निशुःकता आये बिना नहीं रहती मा देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो? * ४५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए श्रावकों को अपने पास देव-द्रव्यादि ब्याजादि से नहीं रखना चाहिए। उसी तरह सुग वाले जैनेतर को भी ब्याजादि के लिये कीमती गहने लेकर भी देव-द्रव्यादि द्रव्य उधार नहीं देना चाहिए । इस शास्त्रपाठ से यह निश्चित होता है कि कोई भी संचालक श्रावक होवे या दूसरा कोई भी श्रावक होवे वह देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य कीमती गहने वगैरह देकर या बिना दिए ब्याज से नहीं रख सकता । यदि रख्खे और उसके ऊपर स्वयं कमाए तो देव-द्रव्यादि के भक्षण करने के दोष का भागीदार बनता वर्तमान की परिस्थिति भारे विषम है जो अतीव शोचनीय है। अंजन-शलाका प्रतिष्ठा-महोत्सवादि के शुभ प्रसंगों में जगह-जगह पर लाखों रुपये के चढावे होते हैं। जिन आचार्य भगवंतादि की निश्रा में लाखों के चढावे होते हैं उनमें से कई गौरव लेते है कि हमारी निश्रा में बहुत बडी आय हुई। गांव के लोग भी आनन्द विभोर बन जाते है । दूसरे गांवों के लोग भी लाखों के चढावे की विपुल प्रमाण में आमदानी को सुनकर खूब खूब अनुमोदना करते हैं । लेकिन लाखों के चढावे बोलने बालों में से कुछ तो अपने चढावे की रकम तुरन्त भरपाई नहीं करते और कहीं पर तो ५ वर्ष, १० वर्ष की किस्तों में रकम बिना व्याज से भरने की होती है। उस रकम पर संघ को थोडा ब्याज देकर स्वयं ज्यादा कमाते हैं और अपना व्यापार धन्धा पीढीयों तक चलाते रहते है और अन्त में कभी ऐसा भी होता है कि मूल मूडी डुब जाती है । देव-द्रव्यादि द्रव्य को अपने पास रखकर उसके ऊपर कमाना देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य का भक्षण है। कई जगह ट्रस्टी लोक भी श्रीमंत श्रावको के वहाँ देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य ब्याज में रखते हैं और वे श्रीमंत श्रावक उसके ऊपर व्यापार करके कमाते हैं इससे ये भी देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य के भक्षण के दोष के भागी बनते है इसलिए ट्रस्टी वर्ग को किसी भी श्रावक को ब्याजादि देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४६ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य नहीं देना चाहिए । शास्त्रों में श्रावक को देवद्रव्यादि उधार देने की साफ मना की है। हा कहीं होवे ऐसा कोई ग्रन्थ देखने में नहीं आता । श्रावक को उधार देने में अनेक आपत्ति के साथ यह भी एक आपत्ति है कि श्रावक लज्जा से उधार लेने वाले श्रावक के पास उगाही न कर सके तो वह द्रव्य डुब भी जावे । तथा संचालन करने वाले ट्रस्टीओं को भी अपने नाम से या अन्य के नाम से उधार लेकर अपने पास कमाई करने के लिए देवद्रव्य नहीं रखना चाहिए । देव-द्रव्यादि द्रव्य से व्यापारादि करके श्रावक अपने लिए कमाई करे तो वह श्रावक दोष पात्र है। देवद्रव्य के मकान में भाडा देकर रहना चाहिए या नहीं ? इस विषय में पं. हर्षचन्द्र गणिवर कृत प्रश्न इस प्रकार है :.. किसी व्यक्ति ने अपना घर जिनालय को अर्पण कर दिया हो, उसमें कोई भी श्रावक किराया देकर रह सकता है या नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में पू. आ. भ. श्री सेनसूरिजी फरमाते है कि - ‘यद्यपि किराया देकर उसमें रहने में दोष नहीं लगता तो भी बिना किसी विशेष कारण के उस मकान में भाडा देकर भी रहना उचित नहीं लगता क्योंकि देवद्रव्य के , भोग आदि में निःशूकता का प्रसंग हो जाता है । (सेनप्रश्न, उल्लास : ३) पू. आ. भ. श्री वि. सेनसूरिजी महाराज जों जगद्गुरु आ. भ. श्री विजयहीरसूरि म. श्री के पट्टालंकार थे इन्होंने कितनी स्पष्टता के साथ यह बात कही है। आज तो परिस्थिति जगह जगह देखने में आती है । देवद्रव्य से बंधवाये हुए मकानों में श्रावक रहकर समय पर भाडा देने में आनाकानी करते हैं, उचित रीति से भी किराया बढ़ाने में टालमटोल करते हैं और देवद्रव्य की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाते है, इस विषय स देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उन्हें तनिक भी खेद नहीं होता । देवद्रव्य के रक्षण की बात तो दूर रही परन्तु उसके भक्षण तक की निःशूकता आ जाती है । यह कई जगह देखने में जानने में आया है । इस दृष्टि से पू. आ. भ. श्री ने स्पष्टता कर के बता दिया है कि 'यह उचित नहीं लगता' यह बहुत ही सदुचित __ श्राद्ध-विधि ग्रन्थ में पू. आचार्य श्री रत्न शेखर सूरीश्वरजी महाराजा फरमाते है कि गृह-हट्टादि च देवज्ञान - सत्कं भाटकेनापि श्रावकेन न व्यापार्यः निःशुङ्कताद्यापत्तेः देव-द्रव्य, ज्ञान द्रव्यादि के बनाये हुए मकान में श्रावको को भाडे से भी रहना उचित नहीं है, क्योंकि श्रावको को देव-द्रव्य ज्ञानद्रव्यादि द्रव्य के भक्षण के प्रति सुग चली जाती है। साधारण-सम्बन्धि तु संघानुमत्या यदि व्यापार्यते । तदाऽपि लोक-व्यवहाररीत्या भाटकमर्प्यते न तु न्यूनम् ॥ . साधारण के मकान दूकानादि में संघ की अनुमति से रह सकते है। फिर भी उसका किराया लोक व्यवहार में जो होवे उस मुताबिक देना चाहिए और खुद को समय के अन्दर जाकर देना चाहिए । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४८ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. देवद्रव्येन या वृद्धिर्गुरु --- द्रव्येन यद्धनं तद्धनं कुलनाशाय मृतोपि नरकं व्रजेत् । देवद्रव्य से जो समृद्धि मिले और गुरुद्रव्य से जो धन प्राप्त हो वह धनसमृद्धि उसके कुल का उच्छेद करने वाली बनती है और मरने के बाद वह मनुष्य नरक में जाता है । तात्पर्य यह है कि देवद्रव्य की मुडी पर व्यापार करके जो आदमी समृद्ध बनता है और गुरु-द्रव्य से व्यापार कर के धन कमाता है उस आदमी को इस भव में इन पाप का उत्कृष्ट फल कुल का उच्छेद रूप से प्राप्त होता है और पारलौकिक उत्कृष्ट फल नरक मिलती है, इसलिये किसी भी श्रावक को व्यापार धंधा करने के लिये देवद्रव्यादि उधार लेना वह पाप में पडने जैसा है । देवद्रव्यादि धर्म की वृद्धि करना है तो शास्त्रानुसार अधिक कीमती गहनें, जागीर, जमीन आदि के ऊपर ब्याजादि से जैनेतर परधर्मी को उधार रूप से ब्याज में दे सकते हैं, देवद्रव्य के विषय में उपयोगी कई बातें बार बार यहाँ इसलिये कहनी पड़ रही है कि - सुज्ञ वाचकवर्ग के ध्यान में यह बात एकदम स्पष्ट रीति से दृढता के साथ आ जाये कि देवद्रव्य की रक्षा के लिये तथा उसके भक्षण का दोष न लग जावे इसके लिये ‘सेनप्रश्न' जैसे ग्रंथ में कितना भार दिया गया है। ____ अभी कई स्थानों पर गुरुपूजन का द्रव्य वैयावच्च में ले जाने की प्रवृत्ति बढ रही है। परंतु सही तौर पर गुरुपूजन का द्रव्य देवद्रव्य ही है । इस बात की स्पष्टता करना यहाँ प्रासंगिक मानकर उस संबंध में पू. पाद जगद्गुरु तपागच्छाधिपति आचार्य भ. श्री हीरसूरीश्वरजी म. श्री को पूछे गये प्रश्नों के उत्तर रुप 'हीरप्रश्न' नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ में से प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं : हीरप्रश्न के तीसरे प्रकाश में पू. पं. नागर्षिगणि के तीन प्रश्न इस पा देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४९ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार है : १. गुरुपूजा संबंधी स्वर्ण आदि द्रव्य गुरु- द्रव्य कहा जाता है या नहीं ? २. पहले इस प्रकार की गुरुपूजा का विधान था या नहीं ? ३. इस द्रव्य का उपयोग किसमें किया जाता है वह बताने की कृपा करें | उक्त प्रश्नों का उत्तर देते हुए पू. आ. भ. जगद्गुरु विजय हीरसूरीश्वरजी म. फरमाते है कि गुरुपूजा संबंधी द्रव्य स्वनिश्राकृत न होने से गुरुद्रव्य नहीं होता जब कि रजोहरण आदि स्वनिश्राकृत होने से गुरुद्रव्य कहे जाते है । हेमचन्द्राचार्याणां कुमारपालराजेन अष्ट- शत- सुवर्णकमलैः प्रत्यहं पूजा कृताऽस्ति । भावार्थ - पू. आ. भ. श्री हेमचन्द्रसूरि महाराज श्री की कुमारपाल महाराजा १०८ स्वर्ण कमलों से सदा पूजा करता था श्रीहीरसूरिजी म. फरमाते है कि ऐसा वर्णन कुमारपाल प्रबंध मे है । तथा धर्मलाभ इति प्रोक्ते दूरादुच्छितपाणये सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटिं नराधिप इति इदं चाग्रपूजा - रूपं द्रव्यं तदानीं संघेन जीर्णोद्धारे तदाज्ञया व्यापारितम् ॥ भावार्थ - तथा धर्मलाभ 'तुम्हें धर्म का लाभ मिले' इस प्रकार दूर से जिन्होंने हाथ ऊंचे किये हैं, ऐसे पू. श्री सिद्धसेन सूरिजी म. को विक्रमराजा ने कोटि द्रव्य दिया । 'इस गुरु पूजा रूप द्रव्य का उस समय जीर्णोद्धार में उपयोग किया गया था ।' ऐसा उनके प्रबन्ध आदि में कहा गया है । (हीरप्रश्न: प्रकाश : ३) देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५० Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरोक्त प्रमाण से स्पष्ट है कि पू. आ. भ. श्री विजयहीर सूरीश्वरजी महाराजश्री जैसे समर्थ गीतार्थ सूरिपुरन्दर भी गुरुपूजन के द्रव्य का उपयोग जीर्णोद्धार में करने का निर्देश करते हैं। इससे स्वतः सिद्ध हो जाता है कि गुरुपूजा का द्रव्य देवद्रव्य ही है। __इस प्रसंग पर यह प्रश्न होता है कि - गुरुपूजन शास्त्रीय है कि नहीं ? यद्यपि इस प्रश्न के उद्भव का कोई कारण नहीं है क्योंकि ऊपर्युक्त स्पष्ट उल्लेख से ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में गुरुपूजन की प्रथा चालू थी तथा नवांगी गुरुपूजन की भी शास्त्रीय प्रथा चालू थी। इसीलिए पू. आ. भ. की सेवा में पं. नागर्षि गणिवर ने प्रश्न किया है कि 'पूर्वकाल में इस प्रकार के गुरुपूजन का विधान था या नहीं ?' उसका उत्तर भी स्पष्ट दिया गया है कि, 'हां, परमार्हत श्री कुमारपाल महाराजा ने गुरुपूजन किया है ।' तो भी इस विषय में पं. श्री वेलर्षिगणि का एक प्रश्न है कि, 'रुपयों से गुरुपूजा करना कहां बताया है ?' प्रत्युत्तर में पू. आ. भ. श्री हीरसूरीश्वरंजी महाराज श्री फरमाते हैं कि, 'कुमारपाल राजा श्री हेमचन्द्राचार्य की १०८ सुवर्ण-कमल से सदा पूजा करता था ।' कुमारपाल प्रबंध आदि में ऐसा वर्णन है। उसका अनुसरण करके वर्तमान समय में भी गुरु की नाणा (द्रव्य) से पूजा की जाती हुई दृष्टिगोचर होती. है। नाणा भी धातुमय है। इस विषय में इस प्रकार का वृद्धवाद भी है कि, श्री सुमति साधुसूरि समये मंडपाचल - दुर्गे मलिक श्री माफराभिधश्रीः जैनधर्मा-भिमुखेन सुवर्णटंककै गीतार्थानां पूजा कृतेति वृद्धवादोपि श्रूयते । सुमति साधुसूरि के समय में मांडवगढ़ में मलिक श्री मारे ने गीतार्थों की सुवर्ण टांकों से पूजा की थी। (श्री हीरप्रश्न : ३ प्रकाश) तथा जीवदेवसूरीणां पूजार्थं अर्धलक्ष-द्रव्यं मल्ल-श्रेष्ठिना दत्तं देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो? * ५१ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेन च प्रासादाद्य-कार्यन्त सूरिभिः । तथा धारायां लघुभोजेन श्री शांतिवेताल-सूरये १२६०००० द्रव्यं दत्तं । तन्मध्ये गुरुणा च द्वादश-लक्षधनेन मालवान्तर - चैत्यान्य-कार्यन्त । षष्टि- सहस्रद्रव्येन च थिरापर्ने चैत्यदेवकुलिका - द्यपि । ___ आ. भ. श्री जीवदेव सूरिजी की पूजा में अर्थ लक्ष द्रव्य मल्ल श्रेष्ठि ने दिया जो उन्होंने जिन मंदिर में लगवाये । और धारा नगरी में भोज राजाने वादीवेताल श्री शांतिसूरिजी की पूजामें १२ लाख ६० हजार रुपये दिये । उसमें से १२ लाख के धन से मालवा देश में मंदिर बनवायें और ६० हजार के द्रव्य से थिरापद्र में जिनमंदिर की देवकुलिका आदि करवाये। पू. आ.भ. श्री कैलाशसागर सूरीश्वरजी म.सा. के सदुपदेश से स्थापित श्रीसिमंधरस्वामी जिनमंदिर खाता महेसाणा संस्था ने वि. सं. २०२७ मे स्वप्नद्रव्य विचार नाम की पुस्तक के गुरुद्रव्य के विभाग में लिखा है कि - गुरुद्रव्य यानी पांच महाव्रतधारी-गुरु का रुपये नाणा आदि से पूजा की हो या आगे गंहुली की हो एवं गुरु पूजा की बोली बोली हो वह रकम मंदिर का नूतन निर्माण या जीर्णोद्धार में खर्च करनी चाहिये ऐसा द्रव्य-सप्ततिका में लिखा है। . पू. पं. अभय सागरजी म.भी “जैनशासन की शासन-संचालन प्रद्धति" पुस्तक के पेज २२ में यह ही कहते है। गुरु पूजा-सत्कं सुवर्णादि रजोहरणाद्युपकरणवत् गुरु-द्रव्यं न भवति स्वनिधायामकृतत्वात् । गुरु पूजा में आया हुआ सुवर्णादि-द्रव्यं रजोहरणादि उपकरण के जैसा गुरु-द्रव्य नहीं है । क्योंकि गुरु का वह द्रव्य निश्रित नहीं है। देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५२ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहचैत्यनैवेद्यचोक्षादि तु देवगृहे मोच्यम् ॥ श्राद्धविधि ग्रन्थकार कहते है कि घर मंदिर में आये नैवेद्य, चावल, सोपारी, नारियल वगैरह जो कुछ आवे वह संघ के मन्दिर में दे देना चाहिए । श्राद्ध विधि ग्रन्थ में आचार्य श्री रत्नशेखर सूरीश्वरजी म. फरमाते है के देवगृहागतं नैवैद्याक्षतादि स्व वस्तुवत् मुषकादे सम्यग् रक्षणीयं । सम्यग् मूल्यादियुक्तया च विक्रेयं - मंदिर में प्रभु भक्ति के लिए रखे गये नैवैद्य चावल फलादि वस्तु को अपने स्वयं की वस्तु हो उस तरह चूहे आदि से अच्छी तरह से रक्षण करना चाहिए और उसको उचित मूल्य से बेच देना चाहिए। बेचने से आये हुए रूपये देव द्रव्य में ही जमा करवाना चाहिए । नोट :- पूजारी आदि को दिया जाता है वह उचित नहीं है । कई जगह पर घर मन्दिर में प्रभुभक्ति के निमित्त से इकट्ठे हुए देवद्रव्य का व्यय घर मन्दिर के जीर्णोद्धार में रंग-रोगानादि करने में तथा पूजा के लिए केसर सुखडादि की व्यवस्था करने में करते हैं वह उचित नहीं है । क्योकि व्यक्ति का मन्दिर कहलाये और उसका निभावादि देवद्रव्य में से करे यह उचित नहीं है । व्यक्ति के मन्दिर में व्यक्ति को स्वयं ही अपने धन से निभावादि की व्यवस्था करनी चाहिये । अपने मन्दिर में आय हुई वस्तु दो वो सब आवक संघ के मन्दिर में दे देने की हैं ऐसा श्राद्धविधि आदि शास्त्र का विधान है । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. देवद्रव्यादि सात क्षेत्रो की व्यवस्था का अधिकारी कौन ? - अहिगारी य गिहत्थो सुह-समणो वित्तम जुओ कुलजो । अखुद्धो धिई बलिओ, मइमं तह धम्म - रागी य ॥५॥ गुरु-पूआ-करण रई सुस्सूआ- इ गुण संगओ चेव । णायाऽहिगय-विहाणस्स धणियमा-णा-पहाणोय॥६॥पञ्चाशक ७. द्रव्य सप्ततिका ग्रन्थ में पूज्य महोपाध्याय श्री लावण्य विजयजी गणिवर्य ऊपर मुजब पंचाशक प्रकरण ग्रन्थ के अनुसार बताते है कि धर्म के कार्य करने में अनुकुल कुटुम्ब वाला, 'न्याय नीति में प्राप्त धनवाला', लोको से सन्माननीय, उत्तम कुल में जन्म लेने वाला, 'उदारदिल वाला', धैर्य से कार्य करने वाला, बुद्धिमान, धर्म का रागी. गुरुओ की भक्ति करने की रति वाला, शुश्रूषादि बुद्धि के आठ गुणो को धारण करने वाला और शास्त्राज्ञा पालक देवद्रव्यादि सात क्षेत्रो की व्यवस्था करने का अधिकारी होता है। विशिष्ट अधिकारी कौन ? । मग्गाऽ-नुसारी पायं सम्म – दिछी तहेव अणुविरइ एएऽहिगारिणो इह, विसेसओ धम्म – सत्थम्मि ॥७॥ मार्गानुसारी, अविरति सम्यग्दृष्टि, देशविरतिवाला, धर्म शास्त्रों के अनुसार व्यवस्था करनेवाला ही प्रायः करके विशेष अधिकारी होता है । (धर्म संग्रह से उद्धृत)। जिन पवयण-वृद्धिकरं पभावगं नाणदंसणगुणाणं वड्ढन्तो जिणदव्वं तित्थयरत्तं लहइ जीवो, रकबंतो जिणदबं परित्त संसारिओ होई । (श्राद्धदिन-कृत्य गा. १४३-१४४) र देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शासन की वृद्धि करने वाला और ज्ञान - दर्शनादि गुणो की प्रभावना करने वाला देव द्रव्य की वृद्धि शास्त्र के अनुसार करता है. वह जीव तीर्थंकर पद को भी प्राप्त करता है । और देवद्रव्यादि की रक्षा करने वाला संसार को कम करता है । जिन - पवयण वृद्धिकरं पभावगं नाणदंसण- गुणाणं । भक्खंतो जिणदव्वं अनंत संसारिओ होड़ (श्रा. दि.गा. १४२ ) । दोहंतो जिणदव्वं दोहिच्च दुग्गयं लहड़ ॥ जिनधन - मुविक्खमाणो दुल्लह बोहिं कुणइजीयो । जैन शासन की वृद्धि करने वाला और ज्ञान दर्शनादि गुणो की प्रभावना करने वाला यदि वह देवद्रव्य का भक्षण करता है तो वह अनंत संसारी यानी अनंत संसार को बढाता है और देवद्रव्य का ब्याज आदि द्वारा स्वयं लाभ उठाता है वह दुर्भाग्य और दारिद्रावस्था को प्राप्त होता है और देवद्रव्य का नाश होते हुए भी उपेक्षा करता है वह जीव दुर्लभबोधि को प्राप्त करता है । जिणवर आणारहियं वद्वारंता वि के वि जिणदव्वं । बुड्डंति भवसमुदं मूढा मोहेण अन्नाणी । (संबोधप्रकरण देवद्रव्यादि गाथा १०२) जिनेश्वर भगवान की आज्ञा के विरुद्ध से देवद्रव्य को बढाता है वह मोह से मूढ अज्ञानी संसार समुद्र में डुब जाता है । द्रव्यसप्ततिका टीका में कहा है, कि - कर्मादानादि - कृव्यापार वर्ज्य, सद् - व्यापारादि विधि - नैव तद् वृद्धिः कार्या' । १५ कर्मादानादि के व्यापार को छोडकर सद् व्यवहारादि की विधि से ही देवद्रव्य की वृद्धि करना चाहिए । भक्खेड़ जो उविक्खेड़ जिणदव्वं तु सावओ । पण्णाहीनो भवे जीवो लिप्पड़ पावकम्मुणा ॥ जो श्रावक देवदव्य का भक्षण करता है और देवद्रव्यादि का भक्षण देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने वाले की उपेक्षा करता है वह जीव मंदबुद्धिवाला होता है और पाप कर्म से लेया जाता है। __ आयाणं जो भंजइ पडिवन्न – धणं न देइ देवस्स । गरहंतं चो - विक्खइ सो वि हु परिभमइ संसारे ॥ जो देवद्रव्यादि के मकानादि का भांडा, पर्युषणादि में बोले गये . चढावे संघ का लागा और चंदें आदि में लिखवाई गई रकम देता नहीं है या विना ब्याज से देरी से देता है और जो देवद्रव्य की आय को तोडता है, देवद्रव्य का कोई विनाश करता हो तथा उगाही आदि की उपेक्षा करता हो वह भी संसार में परिभ्रमण करता है। श्राद्धविधि १२९ __ चेइदब्ब विणासे तद्, दव, विणासणे दुविहभेए । साहु उविक्खमाणो अणंत-संसारिओ होई। चैत्यद्रव्य यानी सोना चांदी रुपये आदि भक्षण से विनाश करे और दूसरा तद् द्रव्य यानी २ प्रकार का जिनमंदिर का द्रव्य नया खरीद किया हुआ और दूसरा पुराना मंदिर के ईट, पत्थर, लकडादि का विनाश करता हो और विनाश करने वाले की उपेक्षा करता हो । यदि साधु भी उपेक्षा करे तो वह भी अनंतसंसारी होता है। चेइअ दव्वं साधारणं च भक्ने विमूढ मणसावि । परिभमइ, तिरीय जोणीसु अन्नाणितं सया लहई। संबोध प्र. देव १०३ संबोध प्रकरण में कहा है कि देवद्रव्य और साधारण द्रव्य मोह से ग्रसित मनवाला भक्षण करता है वह तिर्यंच योनि में परिभ्रमण करता है और हमेशा अज्ञानी होता है। पुराण में भी कहा है कि देवद्रव्येन या वृद्धि गुरु द्रव्येन यद् धनं । तद् धनं कुल नाशाय मृतो पि नरकं व्रजेत् ॥ देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५६ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्रव्य से जो धनादि की वृद्धि और गुरुद्रव्य से जो धन प्राप्त होता है वह कुल - का नाश करता है और मरने के बाद नरक गति में ले जाता है। चेड़अदव्यं साधारणं च जो दुहड़ मोहिय-मड़ओ । धम्मं च सो न याणेड़ अहवा बद्धाउओ नरए ॥ संबोध प्रकरण :जो मनुष्य मोह से ग्रस्त बुद्धिवाला देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य और साधारण द्रव्य को स्वयं के उपयोग मे लेता है वह धर्म को नहीं जानता है । और उसने नरक का आयुष्य बांध लिया है ऐसा समझना । चेइअ - दव्व-विणासे ईसिघाए पवयणस्स उड्डाहे । संजड़- चउत्थभंगे मूलग्गी बोहि - लाभस्स । संबोध प्रकरण गा. १०५ में लिखा है कि देवद्रव्य का नाश, मुनि की हत्या, जैन शासन की अवहेलना करना - करवाना और साध्वी के चतुर्थव्रत को भंग करना बोधिलाभ (समकित ) रुपी वृक्ष के मूल को जलाने के लिए अग्नि समान है । स च देवद्रव्यादि - भक्षको महापापो प्रहत-चेतसः । मृतो पि नरकं अनुबंध - दुर्गतिं व्रजेत् ॥ महापाप से नाश हो गया है मन जिसका ऐसा व्यक्ति देवद्रव्यादिं का भक्षक करके मरने पर दुर्गति का अनुबंध कर नरक में जाता है । प्रभास्वे मा मतिं कुर्यात् प्राणैः कण्ठगतैरपि । अग्निदग्धाः प्ररोहन्ति प्रभादग्धो न रोहयेत् ॥ - (श्राद्धदिन- कृत्य १३४ ) :प्राण कंठ में आने पर भी देवद्रव्य लेने की बुद्धि नही करना चाहिए क्योंकि अग्नि से जले हुए वृक्ष उग जाते है लेकिन देवद्रव्य के भक्षण के पाप से जला हुआ वापिस नहीं उगता । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निदग्धाः पादप - जलसेकादिना प्ररोहन्ति पल्लवयन्ति । रं देवद्रव्यादि - विनाशोग्र - पाप - पावक - दग्धो नरः समूल – दग्ध - द्रुमवत् न पल्लवयति प्रायः सदैव दुखभाक्त्वं पुनर्नवो न भवति : अग्नि से जले हुए वृक्ष जल के सिंचन से उग जाते है और पल्लवित हो जाते है लेकिन देवद्रव्यादि के विनाश के उग्र पाप रुपी अग्नि से जला हुआ मूल से जले हुए वृक्ष की तरह वापस उगता नहीं है । प्रायः करके हमेशा दुःखी होता है। प्रभा-स्वं ब्रह्महत्या च दरिद्रस्य च यद् धनं । - गुरु-पत्नी देवद्रव्यं च स्वर्गस्थमपि पातयेत् । . श्राद्धदिन-कृत्य १३५ में कहा है कि - प्रभाद्रव्य हरण ब्रह्महत्या और दरिद्र का धनभक्षण-गुरु पत्नी भोग और देवद्रव्य का भक्षण स्वर्ग में रहे हुए को भी गिरा देता है। दिगम्बरों के ग्रन्थ में भी कहा है कि :वरं दावानले पातःक्षुधया वा मृतिवरं । मूर्ध्नि वा पतितं वज्रं न तु देवस्व – भक्षणम् ॥१॥ वरं हालाहलादीनां भक्षणं क्षणं दुःखदं । निमल्यि भक्षणं चैव दुःखदं जन्म जन्मनि ॥२॥ दावानल में गिरना श्रेष्ठ, भूख से मौत श्रेष्ठ या सिर पर वज्र (शस्त्र) गिर पड़े तो भी अच्छा लेकिन देवद्रव्य का भक्षण नहीं करना चाहिए। विष का भक्षण श्रेष्ठ है क्योकि थोडे काल का दुखदायी होता है। लेकिन निर्माल्य का भक्षण तो जन्म जन्म में दुःख देने वाला होता है । ज्ञात्वेति जिन-निर्गन्थ-शास्त्रा - दीनां धनं नहि।। गृहीतव्यं महापाप-कारणं दुर्गति-प्रदम् ॥३॥ प देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५८ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार जान करके देवद्रव्य, गुरुद्रव्य और ज्ञानादि का द्रव्य ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योकि यह महा-पाप का कारण और दुर्गति देने वाला है। भक्खणं देव-दव्वस्स परत्थी - गमणेण च । सत्तमं णरयं जंति सत्त वाराओ गोयमा । हे गौतम ! जो देवद्रव्य का भक्षण करता है और परस्त्री का गमन करता है वह सातबार सातवीं नरक में जाता है। श्री शत्रुजय-माहात्म्य में कहा है कि - देवद्रव्यं गुरुद्रव्य दहेदा - सत्तमं कुलम् । अङ्गालमिव तत् स्पष्टुं युज्यते नहि धीमताम् ॥ . देवद्रव्य और गुरुद्रव्य का भक्षण सात कुल का नाश करता है। इसलिए बुद्धिमान् को उसको अंगारे की तरह जान करके छूना भी नही चाहिए - अर्थात् तुरन्त दे देना चाहिए । देवा-इ-दब्बणासे दंसणं मोहं च बंधए मूढा । - उम्मग्ग-देसणा वा जिन - मुनि - संघा - इ - सत्तुब्ब ॥ देवद्रव्य का नाश करने वाला, उन्मार्ग की देशना देनेवाला, मूढ और जिन मुनि और संघादि का शत्रु दर्शन - मोहनीय कर्म का बंध करता है। जं पुणो जिण-दव्वं तु वृद्धिं निंति सु-सावया । ताणं रिद्धी पवड्ढेइ कित्ति सुख-बलं तहा ॥ पुत्ता हुंति सभत्ता सोंडिरा बुद्धि-संजुआ। सकललक्खण संपुना सुसीला जाण संजुआ। देवद्रव्यादि धर्म द्रव्यादि की व्यवस्था करने वाला प्रभु की आज्ञा मुजव नीतिपूर्वक देवद्रव्यादि को बढाता है, उनकी ऋद्धि कीर्ति, सुख देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५९ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बल बढता है और उनके पुत्र भक्त, बुद्धिमान, बलवान् । सभी लक्षणो से युक्त और सुशील होते हैं। एवं नाउण जे दबं बुद्धिं निंति सुसावया । जरा-मरण-रोगाणं अंतं काहिंति ते पुणो । इस प्रकार जान करके जो देवद्रव्य को नीतिपूर्वक बढाते वाले होते हैं वे जन्म, मरण, बुढापा और रोगो का अंत करते है। तित्थयर-पवयण- सुअं आयरिअंगणहरं महिड्डि। आसायंतो बहुसो अणंत- संसारिओ होइ ॥ जो तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुतज्ञान, आचार्य, गणधर, महर्द्धिक की आशातना करता है वह अनंत संसारी होता है। दारिद्द-कुलुप्पत्ती दारिद्दभावं च कुठ्ठरोगाइ। बहुजणधिक्कारं तह, अवण्णवायं च दोहग्गं ॥ .. तण्हा छुहामि भूई घायण-वाहण-विचुण्णतीय । एआइ - असुह फलाइं वीसीअइ भुंजमाणो सो। देवद्रव्यादि के भक्षणादि से दरिद्र कुल में उत्पत्ति, दरिद्रता, कोढ के रोगादि, बहुत लोगो का धिक्कार पात्र, अवर्णवाद, दुर्भाग्य, तृष्णा, भूख, घात, भार खेंचना, प्रहारादि अशुभ फलों को भोगता हुआ प्राणी अनंत दुखी होता है। जड़ इच्छह निव्वाणं अहवा लोए सुवित्थडं कित्तिं । ता जिणवरणिद्दिठं विहिमग्गे आयरं कुणह ॥ हे भव्य प्राणिओ ! यदि तुम्हें निर्वाण पद की इच्छा हो अथवा लोक में हमेशा कीर्ति का विस्तार करना हो तो जिनेश्वर देव के बताये हुए विधिमार्ग का आदर करो। देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ६० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग । सपर्यात स्तवाज्ञा-पालनं परम् । आज्ञा-राद्धा विराद्धा च शिवाय च भवाय च ॥ हे वीतराग ! आपकी पूजा के बनिस्पत आपकी आज्ञा का पालन करना श्रेष्ठ है। क्योंकि आपकी आज्ञा की आराधना मोक्ष प्राप्त कराती है और आज्ञा की विराधना संसार में भ्रमण कराती है। उपदेश-सप्ततिका के पांचवे अधिकार में कहा है कि - ज्ञानद्रव्यं यतोऽकल्प्यं देव-द्रव्यवदुच्यते साधारणमपि द्रव्यं कल्पते संघ-सम्मतम् एकैवेव स्थानके देव-वित्तं क्षेत्र - द्वय्यामेव तु ज्ञान-रिक्थम् ॥ सप्त क्षेल्यां स्थापनीयं तृतीयं श्री सिद्धान्ते जैन एवं ब्रवीति । देवद्रव्य की तरह ज्ञानद्रव्य भी अकल्पनीय कहलाता है । साधारण द्रव्य भी संघ की सम्मति से सात क्षेत्रों में काम आता है, देवद्रव्य एक ही स्थान (क्षेत्र) में काम आता है और ज्ञानद्रव्य ऊपर के दो क्षेत्रो में काम आता है । साधारण द्रव्य सातो क्षेत्र में काम आ सकता है ऐसा सिद्धान्तो में कहा है। पायेणंत - देऊल जिण - पडिमा कारिआओ जियेण । असमंजस- वित्तीए न य सिद्धो दंसण - लवोवि ॥ इस जीव ने प्रायः करके अनंत मंदिर और जिन प्रतिमा बनवाई होगी परंतु शास्त्रविधि के विपरीत होने से सम्यक्त्व का अंश भी प्राप्त नही हुआ। 'न पूइओ होइ तेहिं जिन- नाहो' । आज्ञारहित द्रव्यादि सामग्री से जिनेश्वर की पूजा की हो तो भी वास्तविक जिन पूजा नहीं की। 'पूजाए मणसंति मण – संतिएण सुहवरे गाणं'। पूजा का फल मन की शांति है और मन की शांति से उत्तरोत्तर देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? *६१D Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभध्यान होता है। उपसर्गाः क्षयं यांति छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः। . . मनः प्रसन्नतामेति पूज्य- माने जिनेश्वरे ॥ भावभक्ति से जिनेश्वर भगवान को पूजने पर आने वाले उपसर्ग नाश होते हैं, अंतराय कर्म भी टूट जाते है और मन की प्रसन्नता भी प्राप्त होती है। अतिचार :- तथा देवद्रव्य, गुरुद्रव्य, साधारण द्रव्य भक्षित उपेक्षित प्रज्ञापराधे विणास्यो विणसंतो, उवेख्यो छती शक्ति से सार संभाल न कीधी । भक्षण करने वालों को अतिचार में देवद्रव्य गुरुद्रव्य साधारण द्रव्य भक्षण किया भक्षण करने वाले की उपेक्षा की जानकारी न होने से देवद्रव्य का विनाश करे और विनाश करनेवाले की उपेक्षा करे और शक्ति होने पर भी सार संभाल नही की। द्रव्य सप्ततिका स्वोपज्ञ टीका :जिणदवऋणं जो धरेइ तस्य गेहम्मि जो जिमइ सड्ढो । पावेण परिलिंपड़ गेण्हंतो वि हु जइ भिक्खं ॥ जो जिन-द्रव्य का कर्जदार होता है उसके घर श्रावक जिमता है वह पाप से लेपा जाता है साधु भी आहार ग्रहण करता है तो वह भी पाप से लेपा जाता है। प्रश्न - देवद्रव्य-भक्षक-गृहे जेमनाय गन्तुं कल्पते ? नवा इति-गमने वा तद् जेमन-निष्क्रय-द्रव्यस्य देवगृहे मोक्तुमुचितम् नवा इति ? मुख्यवृत्त्या तद् गृहे भोक्तुं नैव कल्पते । देवद्रव्य का भक्षण करने वाले के घर जिमने जाना कल्पता है या नहीं ? और जिमने जावे तो वह जिमन का निष्क्रय द्रव्य देवमंदिर में देना उचित है या नही ? मुख्यतया उस घर जिमने जाना कल्पता नहीं है । Mi देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो? *६२E R Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेड़अ दव्वं गिणिहंतु भुंजए जड़ देइ साहुण । सो आणा अणवत्थं पावई लिंतो विदितोवि ॥ व्यवहार-भाष्य में कहा है कि जो देवद्रव्य ग्रहण करके भक्षण करता है और साधु को देता है वह आज्ञाभंग, अनवस्था दोष से दूषित होकर और लेने वाले और देने वाले दोनो पाप से लिप्त होते है। अत्र इदम् हार्दम्-धर्मशास्त्रानुसारेण लोकव्यवहारानुसारेणापि यावद् देवादि ऋणम् सपरिवार-श्राद्धादेर्मूर्ध्नि अवतिष्ठते तावद् श्राद्धादि-सत्कः सर्वधनादि - परिग्रहः देवादिसत्कतया सुविहितैः व्यवहियते संसृष्टवात् । यहाँ यह रहस्य है कि धर्मशास्त्र एवं लोक व्यवहार से भी जब तक देवादि का ऋण परिवार वाले श्रावकादि के सिर पर रहता है तब तक श्राद्धादि का सभी धनादि परिग्रह संपत्ति देवद्रव्यादि-मिश्रित है । इससे उसके घर में भोजन करने से उपरोक्त दोष लगते है। मूल्लं विना जिणाणं उवगरणं, चमर छत्तं कलशाइ। जो वापरेइ मूढो, निअकज्जे सो हवइ दुहिओ ॥ जो जिनेश्वर भगवान के उपकरण, चामर, छत्र, कलशादि का भाडा (किराया) दिये विना अपने कार्य में लेता है वह मूढ दुखी होता है । देवद्रव्येण यत्सौख्यं, पदारतः यत्सौख्यम। अनंतानंतदुःखाय, तत् जायते ध्रुवम् ॥ भावार्थ - देवद्रव्य से जो सुख, और जो पर स्त्री से जो सुख प्राप्त होता है वह सुख अनंतानंत दुःख देने वाला होता है।' देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ६३ मा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. सिद्धांतमहोदधि स्व. आ. देव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के पट्टधर रत्न व्याख्यान - वाचस्पति प. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा का श्री जिनाज्ञा सार - गर्भित प्रवचन - राष्ट्रभाषा हिंदी में अवश्य पढो (जैन प्रवचन आजीवन शुल्क ५०१ (प्राप्तिस्थान) जैन प्रवचन प्रकाशन संस्थान ९६, धनजी स्ट्रीट, तृतीय तल, मुंबई - ४००००३ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII भयंकर दुःखो की खान रात्रि भोजन (तृतिय आवृत्ति) संपादक : पू. उपाध्यायजी श्री कमलरत्नविजयजी गणिवर / जैन जगत में अपनी प्रवचन-पटुता से बहुत ही जाने पहचाने व्याख्यान वाचस्पति जिन-शासन के ज्योतिर्धर स्वर्गत पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंद्र सूरीश्वरजी महाराजा की धर्मवाणी को निरन्तर प्रवाहित रखनेवाला मासिक-हिन्दी मासिक जैन- प्रवचन जैन प्रवचन प्रचारक सं मानद संपादक : श्री सागरमल 96, धनजी स्ट्रीट, तीसरा म