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सामायिकादि की आराधना करनेवालों की संख्या बढ़े और गुरु महाराज के व्याख्यानादि में ज्यादा लोग उपस्थित होवे ऐसे प्रयत्न करते रहना चाहिये। जैन शासन की प्रभावना के महोत्सवादि कार्यो में प्रत्येक ट्रस्टी को सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिये । आजकल कई जगह पर ट्रस्टी बनने के बाद निष्क्रिय बन जाते है महोत्सवादि शासन प्रभावना के प्रसंगो की बात तो दूर रखो लेकिन आवश्यक कार्यों के लिये ट्रस्टियों की बुलाई गई मीटिंग में भी उपस्थिति नहीं रहती । शासन के किसी कार्य में भी भाग नहीं लेते । यह अत्यंत अनुचित है। संघ के कार्यों में रुचि से भाग लेने की वृत्ति न होवे तो ऐसे व्यक्ति को ट्रस्टी पद पर आरूढ ही नहीं होना चाहिये । प्रत्येक ट्रस्टी को प्रत्येक शासन के कार्य में जिनागम-शास्त्र का अनुसरण करना चाहिए । संघ में विवाद अपने स्वार्थीय कारणों के वश होकर करे ऐसा नहीं होना चाहिये ।
वास्तव में आज के समय में देव द्रव्यादि द्रव्य की वृद्धि करके बढाए जाना और संग्रह करना ये किसी भी तरह से उचित नहीं है, क्योंकि वर्तमान की सरकार और कायदे ऐसे विचित्र कोटी के है, कि मिलकत कब हाथ में से चली जावे यह कुछ भी नहीं कह सकते । अतः जहां जहां मंदिरों के जीर्णोद्धार इत्यादि जरुरत लगे वहां वहां देव द्रव्य का सद्व्यय कर लेना चाहिए। अपने गांव में मंदिर के अन्दर उपयोग करने की आवश्यकता लगे तो उसमें देव द्रव्य का पैसा लगा देना जरूरी है । अपने गांव के मंदिर में आवश्यकता न होवे तो अन्य गांवों के मंदिर तथा तीर्थ स्थलों के मंदिर के जीर्णोद्धार या नूतन निर्माण में देने की उदारता बतानी चाहिए ।
लेकिन आज तो ज्यादातर ट्रस्टी वर्ग इतनी क्षुद्रवृत्ति के है, कि वे न तो देव द्रव्य का उपयोग अपने गांव के मंदिर में जरूरी काम करवाते
देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १७