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________________ ४. एक कोथली से व्यवस्था दोषित है। देवद्रव्यादि धर्मद्रव्य की व्यवस्था एक कोथली से करना दोषपात्र होने से अत्यन्त अनुचित है। अमुक गाँवो में एक कोथली की व्यवस्था है देवद्रव्य के रूपये आवे तो उसी कोथली में डाले, ज्ञानद्रव्य के रूपये आये तो उसी कोथली में तथा साधारण के रूपये आये तो भी उसी कोथली में डालते है और जब मन्दिरादि के कोई भी कार्य में खर्च करने होते है तब उसी कोथली में से खर्च करते है उस वक्त आगम ग्रन्थ लिखने का या छपवाने का कार्य अथवा साध साध्वीजी म.सा. को पढ़ाने वाले पंडितजी को पगार चुकाने का प्रसंग उपस्थित हो तब उस कोथली में से रुपये लेकर खर्च करते है अथवा साधु आदि के वैयावच्चादि के प्रसंग में भी उसमें से ही खर्च करते है। वास्तव में देवद्रव्य की, ज्ञानद्रव्य की, तथा साधारण द्रव्य वगैरह सबकी काथली अलग अलग रखनी चाहिए। देवद्रव्य आदि के उपभोग से बचने के लिये बहुत ही जरूरी है। मंदिर का कार्य आवे तो देवद्रव्य की कोथली में से धन व्यय करना चाहिए । जान का कार्य आवे तो ज्ञानद्रव्य की कोथली में से तथा साधारण के कार्य उपस्थित हो तो साधारण की कोथली से धन व्यय करना चाहिए। लेकिन ज़ान, साधारण . खाते की रकम न होवे तो देवद्रव्य की कोथली में से लेकर ज्ञानादि के कार्य में देवद्रव्य का व्यय नहीं कर सकते । यद्यपि मंदिर का कोई कार्य आवे तो जानद्रव्य का उपयोग हो सकता है क्योंकि ऊपर के खाते के कार्य में नीचे के खाते की सम्पत्ति का व्यय करने में शास्त्र का कोई बाध नहीं है अतः देवद्रव्यादि सब द्रव्य की एक कोथली रखने से देवद्रव्य का दुरुपयोग होता है जो पाप का कारणभूत है। इस हेतु सब द्रव्य की एक कोथली रखना और सर्व कार्यों में उसमें से द्रव्य खर्चना तद्दन गलत हैं। एक देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * १९
SR No.002499
Book TitleDevdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalratnasuri
PublisherAdhyatmik Prakashan Samstha
Publication Year1997
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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