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में कर्जदार बनकर भवानर में जाना पडता है। धर्मस्थानों का देवा खडा रखना और मुनीम आदि को धक्का खिलाते रहना यह रीत लाभदायी तथा शोभास्पद नहीं है । अतः आत्मार्थी पुरुष को आत्मकल्याण के लिए जो बोली बोली हो वह तुरन्त ही दे देना चाहिए है। जैन शासन में सर्वश्रेष्ट कोटि का द्रव्य देवद्रव्य को माना गया है । उसको जानते या अनजानते में अपने उपयोग में लेना, खा जाना, नुकसान पहुंचाना तथा कोई खा जाता होवे, चोर लेता होवे, हानि पहुंचाता होवे उसकी उपेक्षा करना यह बडा पाप हैं।
देवद्रव्य के भक्षणादि का ऐसा घोर पाप है कि देवद्रव्यादि का भक्षणादि करने वाले को इस जन्म में भी दरिद्रतादि की भयंकर यातनाएं भोगनी पडती है और जन्मान्तर में भी (दुर्गति में) अनन्त अनन्त बार चक्कर लगाना पडता है और अनन्तानन्त असह्य दुःख भोगने पड़ते हैं एक मन्दिर के दीपक से घर का काम करनेवाली देवसेन श्रेष्टि की माँ की क्या दशा हुई ? उसकी जानकारी के लिए उपदेश प्रासाद, श्राद्धविधि आदि ग्रन्थों में एक दृष्टान्त आता है कि इन्द्रपुर नगर में देवसेन नाम के एक धनाढ्य सेट रहते थे । हररोज उसके घर एक ऊंटडी आती थी। उसका मालिक मार-मार कर अपने घर ले जाता था लेकिन वह ऊंटडी वापिस देवसेन सेट के घर पर आ जाती । यह देखकर देवसेन श्रेष्टि को बडा आश्चर्य हुआ। एक बार ज्ञानी गुरु भगवन्त पधारे तो देवसेन श्रेष्टि ने उनको पूछा कि भगवन् ! यह ऊंटडी बार बार मेरे घर पर क्यों आ जाती है ? तब ज्ञानी गुरु भगवन्त ने कहा कि यह ऊंटडी गत जन्म में तेरी माँ थी । वह हरहमेश जिनेश्वर भगवन्त के आगे दीपक करती थी और उसी दीपक से अपने घर का काम करती थी। जिनेश्वर भगवन्त के आगे किया हुआ दीपक देवद्रव्य हो जाता है अतः उससे घर का काम करने से देवद्रव्य भक्षण के पाप का कारण बन जाता है । तेरी मां जिनेश्वर
देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ११