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________________ और बल बढता है और उनके पुत्र भक्त, बुद्धिमान, बलवान् । सभी लक्षणो से युक्त और सुशील होते हैं। एवं नाउण जे दबं बुद्धिं निंति सुसावया । जरा-मरण-रोगाणं अंतं काहिंति ते पुणो । इस प्रकार जान करके जो देवद्रव्य को नीतिपूर्वक बढाते वाले होते हैं वे जन्म, मरण, बुढापा और रोगो का अंत करते है। तित्थयर-पवयण- सुअं आयरिअंगणहरं महिड्डि। आसायंतो बहुसो अणंत- संसारिओ होइ ॥ जो तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुतज्ञान, आचार्य, गणधर, महर्द्धिक की आशातना करता है वह अनंत संसारी होता है। दारिद्द-कुलुप्पत्ती दारिद्दभावं च कुठ्ठरोगाइ। बहुजणधिक्कारं तह, अवण्णवायं च दोहग्गं ॥ .. तण्हा छुहामि भूई घायण-वाहण-विचुण्णतीय । एआइ - असुह फलाइं वीसीअइ भुंजमाणो सो। देवद्रव्यादि के भक्षणादि से दरिद्र कुल में उत्पत्ति, दरिद्रता, कोढ के रोगादि, बहुत लोगो का धिक्कार पात्र, अवर्णवाद, दुर्भाग्य, तृष्णा, भूख, घात, भार खेंचना, प्रहारादि अशुभ फलों को भोगता हुआ प्राणी अनंत दुखी होता है। जड़ इच्छह निव्वाणं अहवा लोए सुवित्थडं कित्तिं । ता जिणवरणिद्दिठं विहिमग्गे आयरं कुणह ॥ हे भव्य प्राणिओ ! यदि तुम्हें निर्वाण पद की इच्छा हो अथवा लोक में हमेशा कीर्ति का विस्तार करना हो तो जिनेश्वर देव के बताये हुए विधिमार्ग का आदर करो। देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ६०
SR No.002499
Book TitleDevdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalratnasuri
PublisherAdhyatmik Prakashan Samstha
Publication Year1997
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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