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इस प्रकार जान करके देवद्रव्य, गुरुद्रव्य और ज्ञानादि का द्रव्य ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योकि यह महा-पाप का कारण और दुर्गति देने वाला है।
भक्खणं देव-दव्वस्स परत्थी - गमणेण च । सत्तमं णरयं जंति सत्त वाराओ गोयमा ।
हे गौतम ! जो देवद्रव्य का भक्षण करता है और परस्त्री का गमन करता है वह सातबार सातवीं नरक में जाता है।
श्री शत्रुजय-माहात्म्य में कहा है कि - देवद्रव्यं गुरुद्रव्य दहेदा - सत्तमं कुलम् । अङ्गालमिव तत् स्पष्टुं युज्यते नहि धीमताम् ॥ .
देवद्रव्य और गुरुद्रव्य का भक्षण सात कुल का नाश करता है। इसलिए बुद्धिमान् को उसको अंगारे की तरह जान करके छूना भी नही चाहिए - अर्थात् तुरन्त दे देना चाहिए ।
देवा-इ-दब्बणासे दंसणं मोहं च बंधए मूढा । - उम्मग्ग-देसणा वा जिन - मुनि - संघा - इ - सत्तुब्ब ॥
देवद्रव्य का नाश करने वाला, उन्मार्ग की देशना देनेवाला, मूढ और जिन मुनि और संघादि का शत्रु दर्शन - मोहनीय कर्म का बंध करता
है।
जं पुणो जिण-दव्वं तु वृद्धिं निंति सु-सावया । ताणं रिद्धी पवड्ढेइ कित्ति सुख-बलं तहा ॥ पुत्ता हुंति सभत्ता सोंडिरा बुद्धि-संजुआ। सकललक्खण संपुना सुसीला जाण संजुआ।
देवद्रव्यादि धर्म द्रव्यादि की व्यवस्था करने वाला प्रभु की आज्ञा मुजव नीतिपूर्वक देवद्रव्यादि को बढाता है, उनकी ऋद्धि कीर्ति, सुख
देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५९