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उपरोक्त प्रमाण से स्पष्ट है कि पू. आ. भ. श्री विजयहीर सूरीश्वरजी महाराजश्री जैसे समर्थ गीतार्थ सूरिपुरन्दर भी गुरुपूजन के द्रव्य का उपयोग जीर्णोद्धार में करने का निर्देश करते हैं। इससे स्वतः सिद्ध हो जाता है कि गुरुपूजा का द्रव्य देवद्रव्य ही है।
__इस प्रसंग पर यह प्रश्न होता है कि - गुरुपूजन शास्त्रीय है कि नहीं ? यद्यपि इस प्रश्न के उद्भव का कोई कारण नहीं है क्योंकि ऊपर्युक्त स्पष्ट उल्लेख से ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में गुरुपूजन की प्रथा चालू थी तथा नवांगी गुरुपूजन की भी शास्त्रीय प्रथा चालू थी। इसीलिए पू. आ. भ. की सेवा में पं. नागर्षि गणिवर ने प्रश्न किया है कि 'पूर्वकाल में इस प्रकार के गुरुपूजन का विधान था या नहीं ?' उसका उत्तर भी स्पष्ट दिया गया है कि, 'हां, परमार्हत श्री कुमारपाल महाराजा ने गुरुपूजन किया है ।' तो भी इस विषय में पं. श्री वेलर्षिगणि का एक प्रश्न है कि, 'रुपयों से गुरुपूजा करना कहां बताया है ?' प्रत्युत्तर में पू. आ. भ. श्री हीरसूरीश्वरंजी महाराज श्री फरमाते हैं कि, 'कुमारपाल राजा श्री हेमचन्द्राचार्य की १०८ सुवर्ण-कमल से सदा पूजा करता था ।' कुमारपाल प्रबंध आदि में ऐसा वर्णन है। उसका अनुसरण करके वर्तमान समय में भी गुरु की नाणा (द्रव्य) से पूजा की जाती हुई दृष्टिगोचर होती. है। नाणा भी धातुमय है। इस विषय में इस प्रकार का वृद्धवाद भी है कि, श्री सुमति साधुसूरि समये मंडपाचल - दुर्गे मलिक श्री माफराभिधश्रीः जैनधर्मा-भिमुखेन सुवर्णटंककै गीतार्थानां पूजा कृतेति वृद्धवादोपि श्रूयते । सुमति साधुसूरि के समय में मांडवगढ़ में मलिक श्री मारे ने गीतार्थों की सुवर्ण टांकों से पूजा की थी।
(श्री हीरप्रश्न : ३ प्रकाश) तथा जीवदेवसूरीणां पूजार्थं अर्धलक्ष-द्रव्यं मल्ल-श्रेष्ठिना दत्तं
देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो? * ५१