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द्वारा ब्याज से रखा जा सकता है या नहीं ? और रखने वालों को वह दूषणरूप होता है या भूषणरूप ? इस प्रश्न का उत्तर पू. आ. भ. श्री विजयसेन सूरीश्वरजी महाराज स्पष्ट रूप से फरमाते हैं कि,
श्रावकों को देवद्रव्य ब्याज से नहीं रखना चाहिए क्योंकि निःशुकत्व आ जाता है । अतः अपने व्यापार आदि में उसे व्याज से नहीं लगाना चाहिये । 'यदि अल्प भी देवद्रव्य का भोग हो जाय तो संकाश श्रावक की तरह अत्यन्त दुष्ट फल मिलता है ।' ऐसा ग्रन्थ में देखा जाता है । ( सेनप्रश्न : प्रश्न २१, उल्लास : ३)
इससे पुनः पुनः यह बात स्पष्ट होती है कि, देवद्रव्य की एक पाई भी पापभीरु सुज्ञ श्रावक अपने पास ब्याज से भी नहीं रखे । इसी प्रकार बोली बोलकर देवद्रव्य की रकम अपने पास वर्षो तक बिना ब्याज से केवल उपेक्षा भाव से रखते हैं, भुगतान नहीं करते हैं, उन विचारों की क्या दशा होगी ? इसी तरह बोली में बोली हुई रकम को अपने पास मनमाने ब्याज से रखे रहते हैं, उनके लिये वह कृत्य सचमुच सेनप्रश्न- कार पूज्यपाद श्री फरमाते है उनको बहुत 'दुष्ट फल देनेवाला बनता है' यह नि:शंक है ।
केचित्तु श्राद्धव्यतिरिक्तेभ्यः समधिकं ग्रहणकं गृहीत्वा कालान्तरेणापि यद् वृद्धिरूचितैव । इत्यादुः “यह द्रव्यसप्ततिका ग्रंथ की ८वीं गाथा की स्वोपज्ञ टीका में कहा है इसका भावार्थ यह है कि कई कहते है कि अधिक किंमत के गहने आदि लेकर श्रावको के सिवाय को व्याज में देकर देवद्रव्य बढाना उचित है ।"
विवेक विलास ग्रन्थ में कहा है कि देव-द्रव्यादि धर्म - द्रव्य किसी को भी व्याज में उधार देना हो तो सोने चांदी के गहने तथा जमीन जागीरदारी के ऊपर देने चाहिए । गहने या जमीन आदि के लिए बिना देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४४