Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Author(s): Kamalratnasuri
Publisher: Adhyatmik Prakashan Samstha

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Page 68
________________ चेड़अ दव्वं गिणिहंतु भुंजए जड़ देइ साहुण । सो आणा अणवत्थं पावई लिंतो विदितोवि ॥ व्यवहार-भाष्य में कहा है कि जो देवद्रव्य ग्रहण करके भक्षण करता है और साधु को देता है वह आज्ञाभंग, अनवस्था दोष से दूषित होकर और लेने वाले और देने वाले दोनो पाप से लिप्त होते है। अत्र इदम् हार्दम्-धर्मशास्त्रानुसारेण लोकव्यवहारानुसारेणापि यावद् देवादि ऋणम् सपरिवार-श्राद्धादेर्मूर्ध्नि अवतिष्ठते तावद् श्राद्धादि-सत्कः सर्वधनादि - परिग्रहः देवादिसत्कतया सुविहितैः व्यवहियते संसृष्टवात् । यहाँ यह रहस्य है कि धर्मशास्त्र एवं लोक व्यवहार से भी जब तक देवादि का ऋण परिवार वाले श्रावकादि के सिर पर रहता है तब तक श्राद्धादि का सभी धनादि परिग्रह संपत्ति देवद्रव्यादि-मिश्रित है । इससे उसके घर में भोजन करने से उपरोक्त दोष लगते है। मूल्लं विना जिणाणं उवगरणं, चमर छत्तं कलशाइ। जो वापरेइ मूढो, निअकज्जे सो हवइ दुहिओ ॥ जो जिनेश्वर भगवान के उपकरण, चामर, छत्र, कलशादि का भाडा (किराया) दिये विना अपने कार्य में लेता है वह मूढ दुखी होता है । देवद्रव्येण यत्सौख्यं, पदारतः यत्सौख्यम। अनंतानंतदुःखाय, तत् जायते ध्रुवम् ॥ भावार्थ - देवद्रव्य से जो सुख, और जो पर स्त्री से जो सुख प्राप्त होता है वह सुख अनंतानंत दुःख देने वाला होता है।' देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ६३ मा

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