Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Author(s): Kamalratnasuri
Publisher: Adhyatmik Prakashan Samstha

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Page 36
________________ ९. पू. मुनिराज श्री धर्मविजयजी म. ( आ. भ. श्री. वि. धर्मसूरिजी म. ) भी स्वप्नाजी की बोली देवद्रव्य स्वीकारते है । उन्ही के पत्र द्वारा स्पष्टीकरण श्री नया शहर से लि. धर्मविजयादि साधु ७ का श्री पालनपुर तत्र देवादि - भक्तिमान् मगनलाल कक्कल दोशी योग्य धर्मलाभ बांचना । आपका पत्र मिला । घी (बोली) सम्बन्धी प्रश्न जाने । प्रतिक्रमण संबंधी तथा सूत्र संबंधी जो बोली हो वह ज्ञान खाते में ले जाना उचित है। स्वप्न सम्बन्धी घी की उपज स्वप्न बनवाने, पालने बनवाने आदि में खर्च करना उचित है । शेष पैसे देवद्रव्य में लेने की रीति प्रायः सब स्थानों पर हैं उपधान में जो उपज हो वह ज्ञान खाते में तथा नाण आदि की उपज देवद्रव्य में जाती है। विशेष आपके यहां महाराज श्री हंसविजय जी म.सा. बिराजमान है उनको पूछना । एक गाँव का संघ कल्पना करें वह नहीं चल सकता । आज कल साधारण खाते में विशेष पैसा न होने से कई गाँवो में स्वप्न, आदि की उपज साधारण खाते में लेने की योजना करते हैं परन्तु मेरी समझ से यह टीक नहीं है, देव दर्शन करते याद करना । इस प्रकार आ. भ. श्री. वि. धर्मसूरि महाराजने मुनि धर्म वि. के नाम से आचार्य पदवी के पहले लिखे हुए पत्रमें स्पष्ट कहा है कि "स्वप्न सम्बन्धी घी की उपज का स्वप्न बनवाने, पालना बनवाने आदि में खर्च करना चाहिए बाकी के पैसे देवद्रव्य में ले जाने की पद्धति सर्वत्र मालूम होती है । तदुपरान्त वे स्पष्ट कहते है 'कि एक गाँव का संघ - कल्पना करे वह चल नहीं सकता, इसी तरह वे आगे कहते हैं कि 'आजकल साधारण खाते में विशेष पैसा न होने से कुछ गाँवो में स्वप्न आदि की योजना करते हैं परन्तु यह टीक नहीं है । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ३१

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