Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho Author(s): Kamalratnasuri Publisher: Adhyatmik Prakashan SamsthaPage 51
________________ इसलिए श्रावकों को अपने पास देव-द्रव्यादि ब्याजादि से नहीं रखना चाहिए। उसी तरह सुग वाले जैनेतर को भी ब्याजादि के लिये कीमती गहने लेकर भी देव-द्रव्यादि द्रव्य उधार नहीं देना चाहिए । इस शास्त्रपाठ से यह निश्चित होता है कि कोई भी संचालक श्रावक होवे या दूसरा कोई भी श्रावक होवे वह देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य कीमती गहने वगैरह देकर या बिना दिए ब्याज से नहीं रख सकता । यदि रख्खे और उसके ऊपर स्वयं कमाए तो देव-द्रव्यादि के भक्षण करने के दोष का भागीदार बनता वर्तमान की परिस्थिति भारे विषम है जो अतीव शोचनीय है। अंजन-शलाका प्रतिष्ठा-महोत्सवादि के शुभ प्रसंगों में जगह-जगह पर लाखों रुपये के चढावे होते हैं। जिन आचार्य भगवंतादि की निश्रा में लाखों के चढावे होते हैं उनमें से कई गौरव लेते है कि हमारी निश्रा में बहुत बडी आय हुई। गांव के लोग भी आनन्द विभोर बन जाते है । दूसरे गांवों के लोग भी लाखों के चढावे की विपुल प्रमाण में आमदानी को सुनकर खूब खूब अनुमोदना करते हैं । लेकिन लाखों के चढावे बोलने बालों में से कुछ तो अपने चढावे की रकम तुरन्त भरपाई नहीं करते और कहीं पर तो ५ वर्ष, १० वर्ष की किस्तों में रकम बिना व्याज से भरने की होती है। उस रकम पर संघ को थोडा ब्याज देकर स्वयं ज्यादा कमाते हैं और अपना व्यापार धन्धा पीढीयों तक चलाते रहते है और अन्त में कभी ऐसा भी होता है कि मूल मूडी डुब जाती है । देव-द्रव्यादि द्रव्य को अपने पास रखकर उसके ऊपर कमाना देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य का भक्षण है। कई जगह ट्रस्टी लोक भी श्रीमंत श्रावको के वहाँ देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य ब्याज में रखते हैं और वे श्रीमंत श्रावक उसके ऊपर व्यापार करके कमाते हैं इससे ये भी देव-द्रव्यादि धर्म-द्रव्य के भक्षण के दोष के भागी बनते है इसलिए ट्रस्टी वर्ग को किसी भी श्रावक को ब्याजादि देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४६Page Navigation
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