Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Author(s): Kamalratnasuri
Publisher: Adhyatmik Prakashan Samstha

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Page 57
________________ तेन च प्रासादाद्य-कार्यन्त सूरिभिः । तथा धारायां लघुभोजेन श्री शांतिवेताल-सूरये १२६०००० द्रव्यं दत्तं । तन्मध्ये गुरुणा च द्वादश-लक्षधनेन मालवान्तर - चैत्यान्य-कार्यन्त । षष्टि- सहस्रद्रव्येन च थिरापर्ने चैत्यदेवकुलिका - द्यपि । ___ आ. भ. श्री जीवदेव सूरिजी की पूजा में अर्थ लक्ष द्रव्य मल्ल श्रेष्ठि ने दिया जो उन्होंने जिन मंदिर में लगवाये । और धारा नगरी में भोज राजाने वादीवेताल श्री शांतिसूरिजी की पूजामें १२ लाख ६० हजार रुपये दिये । उसमें से १२ लाख के धन से मालवा देश में मंदिर बनवायें और ६० हजार के द्रव्य से थिरापद्र में जिनमंदिर की देवकुलिका आदि करवाये। पू. आ.भ. श्री कैलाशसागर सूरीश्वरजी म.सा. के सदुपदेश से स्थापित श्रीसिमंधरस्वामी जिनमंदिर खाता महेसाणा संस्था ने वि. सं. २०२७ मे स्वप्नद्रव्य विचार नाम की पुस्तक के गुरुद्रव्य के विभाग में लिखा है कि - गुरुद्रव्य यानी पांच महाव्रतधारी-गुरु का रुपये नाणा आदि से पूजा की हो या आगे गंहुली की हो एवं गुरु पूजा की बोली बोली हो वह रकम मंदिर का नूतन निर्माण या जीर्णोद्धार में खर्च करनी चाहिये ऐसा द्रव्य-सप्ततिका में लिखा है। . पू. पं. अभय सागरजी म.भी “जैनशासन की शासन-संचालन प्रद्धति" पुस्तक के पेज २२ में यह ही कहते है। गुरु पूजा-सत्कं सुवर्णादि रजोहरणाद्युपकरणवत् गुरु-द्रव्यं न भवति स्वनिधायामकृतत्वात् । गुरु पूजा में आया हुआ सुवर्णादि-द्रव्यं रजोहरणादि उपकरण के जैसा गुरु-द्रव्य नहीं है । क्योंकि गुरु का वह द्रव्य निश्रित नहीं है। देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ५२

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