Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho Author(s): Kamalratnasuri Publisher: Adhyatmik Prakashan SamsthaPage 53
________________ में उन्हें तनिक भी खेद नहीं होता । देवद्रव्य के रक्षण की बात तो दूर रही परन्तु उसके भक्षण तक की निःशूकता आ जाती है । यह कई जगह देखने में जानने में आया है । इस दृष्टि से पू. आ. भ. श्री ने स्पष्टता कर के बता दिया है कि 'यह उचित नहीं लगता' यह बहुत ही सदुचित __ श्राद्ध-विधि ग्रन्थ में पू. आचार्य श्री रत्न शेखर सूरीश्वरजी महाराजा फरमाते है कि गृह-हट्टादि च देवज्ञान - सत्कं भाटकेनापि श्रावकेन न व्यापार्यः निःशुङ्कताद्यापत्तेः देव-द्रव्य, ज्ञान द्रव्यादि के बनाये हुए मकान में श्रावको को भाडे से भी रहना उचित नहीं है, क्योंकि श्रावको को देव-द्रव्य ज्ञानद्रव्यादि द्रव्य के भक्षण के प्रति सुग चली जाती है। साधारण-सम्बन्धि तु संघानुमत्या यदि व्यापार्यते । तदाऽपि लोक-व्यवहाररीत्या भाटकमर्प्यते न तु न्यूनम् ॥ . साधारण के मकान दूकानादि में संघ की अनुमति से रह सकते है। फिर भी उसका किराया लोक व्यवहार में जो होवे उस मुताबिक देना चाहिए और खुद को समय के अन्दर जाकर देना चाहिए । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४८Page Navigation
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