Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Author(s): Kamalratnasuri
Publisher: Adhyatmik Prakashan Samstha

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Page 54
________________ १४. देवद्रव्येन या वृद्धिर्गुरु --- द्रव्येन यद्धनं तद्धनं कुलनाशाय मृतोपि नरकं व्रजेत् । देवद्रव्य से जो समृद्धि मिले और गुरुद्रव्य से जो धन प्राप्त हो वह धनसमृद्धि उसके कुल का उच्छेद करने वाली बनती है और मरने के बाद वह मनुष्य नरक में जाता है । तात्पर्य यह है कि देवद्रव्य की मुडी पर व्यापार करके जो आदमी समृद्ध बनता है और गुरु-द्रव्य से व्यापार कर के धन कमाता है उस आदमी को इस भव में इन पाप का उत्कृष्ट फल कुल का उच्छेद रूप से प्राप्त होता है और पारलौकिक उत्कृष्ट फल नरक मिलती है, इसलिये किसी भी श्रावक को व्यापार धंधा करने के लिये देवद्रव्यादि उधार लेना वह पाप में पडने जैसा है । देवद्रव्यादि धर्म की वृद्धि करना है तो शास्त्रानुसार अधिक कीमती गहनें, जागीर, जमीन आदि के ऊपर ब्याजादि से जैनेतर परधर्मी को उधार रूप से ब्याज में दे सकते हैं, देवद्रव्य के विषय में उपयोगी कई बातें बार बार यहाँ इसलिये कहनी पड़ रही है कि - सुज्ञ वाचकवर्ग के ध्यान में यह बात एकदम स्पष्ट रीति से दृढता के साथ आ जाये कि देवद्रव्य की रक्षा के लिये तथा उसके भक्षण का दोष न लग जावे इसके लिये ‘सेनप्रश्न' जैसे ग्रंथ में कितना भार दिया गया है। ____ अभी कई स्थानों पर गुरुपूजन का द्रव्य वैयावच्च में ले जाने की प्रवृत्ति बढ रही है। परंतु सही तौर पर गुरुपूजन का द्रव्य देवद्रव्य ही है । इस बात की स्पष्टता करना यहाँ प्रासंगिक मानकर उस संबंध में पू. पाद जगद्गुरु तपागच्छाधिपति आचार्य भ. श्री हीरसूरीश्वरजी म. श्री को पूछे गये प्रश्नों के उत्तर रुप 'हीरप्रश्न' नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ में से प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं : हीरप्रश्न के तीसरे प्रकाश में पू. पं. नागर्षिगणि के तीन प्रश्न इस पा देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४९

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