Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho Author(s): Kamalratnasuri Publisher: Adhyatmik Prakashan SamsthaPage 45
________________ नियमा वर्षाचातुर्मास्यां विशेषतो ग्राह्या इति । एवं प्रश्नोत्तरसमुच्चयाचारप्रदीपाचारदिनकर श्राद्धविध्याद्यनुसारेण श्रीजिनस्येव गुरोरपि सम्बन्धेन अङ्गाग्रपूजा सिद्धा तद्धनं च गौरवार्हस्थाने पूजा प्रयोक्तव्यमिति । - बालक का नामस्थापन करने के समय श्रावक अपने बालक को लेकर घर से निकल कर गुरु महाराज के उपाश्रय में आवे वहाँ गुरु महाराज को प्रणाम करके नव सुवर्ण या चांदी के महोर से गुरु की नवांग पूजा करके घर के (गृहस्थ ) गुरु और देव की साक्षी में जो नाम रखा हो वह (गुरु महाराज को) निवेदन करे तत्पश्चात् गुरु महाराज योग्य मंत्र से वासक्षेप को मंत्रित कर ॐकारादि की स्थापनापूर्वक वासक्षेप डालकर अपनी साक्षी से उस बालक का नाम-स्थापन अपनी आज्ञापूर्वक की करते है । तथा दो-तीन या अष्टभेदी पूजा करनी। मंदिर में संपूर्ण देव-वंदन, बड़े मंदिर में सकल जिनबिम्बों की पूजा, वंदना, स्नात्र महोत्सव, महापूजा, प्रभावना वगैरह गुरु को बडा (द्वाद्वशावर्त) वंदन गुरु की अंग पूजा तथा प्रभावना, गुरु के समक्ष स्वस्तिक की रचना करके व्याख्यान श्रवण करना इत्यादि नियमों को चोमासे में विशेष करके ग्रहण करने चाहिए । इस प्रकार प्रश्नोत्तर समुच्चय, आचार प्रदीप, आचार दिनकर तथा श्राद्धविधि वगैरह ग्रन्थों के अनुसार श्री जिनेश्वर भगवान की अंग और अग्र पूजा की तरह गुरु की अंग पूजा और अग्र पूजा सिद्ध होती है और गुरु की अंग और अग्र पूजा के द्रव्य का उपयोग पूजा के सम्बन्ध से गौरवता वाले स्थान में लेना चाहिए यानी गुरु से भी ज्यादा पूजनीय देवाधिदेव है उस स्थान में यानी जिनमंदिर और जिनमूर्ति क्षेत्र के देवद्रव्य में गुरुपूजा के द्रव्य का उपयोग करना चाहिए । देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * ४०Page Navigation
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