Book Title: Devdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho Author(s): Kamalratnasuri Publisher: Adhyatmik Prakashan SamsthaPage 29
________________ ६. देवद्रव्य की सुरक्षा तथा सदुपयोग करना चाहिये न कि उसका दुरुपयोग और बेदरकारी मंदिर उपाश्रयादि के जीर्णोद्धार या नव-निर्माण के कार्यों में देवद्रव्यादि के पैसे खर्चने में मितव्ययिता करो यह बात अलग है लेकिन कंजूसी नहीं करनी चाहिए । कार्य में कंजुसी करने से कार्य बिगड़ जाता हैं और देवद्रव्यादि द्रव्य का दुगुना खर्च करना पड़ता है । उसी तरह मंदिरादि के लिए कोई वस्तु लाने में भी कंजुसी नहीं करनी चाहिए । जिस तरह से कंजुसी नहीं करनी चाहिए उसी तरह ज्यादा उदारता बता कर देवद्रव्य का अधिक प्रमाण में खर्च न होवे उसका भी ध्यान रखना जरूरी है । जो ट्रस्टी वर्ग ज्यादा प्रमाण में उदारता बताकर मंदिरादि के कार्य में या मंदिरादि के लिये चीज खरीदने में देवद्रव्यादि का बेफाम खर्च करते हैं वे वास्तवमें दुःसंचालन करने वाले होते हैं। आज जगह जगह पर यह होता है कि संस्था के कार्यो में पैसे खर्चने में बहुत ही उदारता बताते हैं काम करने वाले कारीगर - मजदूरादि को पगार ज्यादा दे देते है और सामग्री खरीदने में ज्यादा भाव दे देते हैं । इस तरह करना दुःसंचालन है । दुःसंचालन किस प्रकार से होता है इस बाबत में द्रव्य सप्ततिका ग्रन्थ की १३वी गाथाके 'पण्णाहीनां भवे जो" इस पद की व्याख्या करते हुए कहा है कि : ― प्रज्ञाहीनत्वमड्गोद्धारादिना देवद्रव्यादिदानं यद् वा मन्दमतितया स्वल्पेन बहुना वा धनेन कार्य - सिद्धयवेदकत्वात् यथाकथंचित द्रव्यव्ययकारित्वं कूटलेख्य - कृतत्वं च । संचालन करने में बुद्धिहीनता यह है कि जो अधिक किमती जौहर, जमीन, जागीर आदि लिए बिना केवल अंग उधार रूप से देवद्रव्यादि देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? * २४Page Navigation
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